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यहाँ मुनिराज के उद्देश्य मे और हमारे उद्देश्य मे कोई अंतर नही । अब जो कुछ अतर है वह इतना ही है कि वे बकरो को बचाने की दृष्टि से कार्य बिल्कुल नही करते हैं और हमने पहले से ही प्रधानत चीटियो को बचाने ही की दृष्टि से इस कार्य को शुरु किया । मुनिराज के श्रीर हमारे भावो में अंतर है तो यही है और यह प्रतर भी बहुत वडा है । ठीक कौन है, इसका पाठको को निर्णय करना है ।
रकम व्याज पर देने वाला रकम उधार देता है अपने व्याज के लिए न कि उधार लेने वाले की भलाई के लिए । अव यदि उसकी भलाई होती है और उधार लेने वाला, उधार देने वाले का उपकार मानता है तो भी हम कह सकते है कि इस उपकार का अधिकारी उधार देने वाला नही है । मुनिराजो ने जब यह स्पष्ट घोषित कर दिया कि बकरे की भलाई के उद्देश्य से उन्होने यह कार्य
किया है तो ठीक है अब यदि उनके हाथो से बकरे की भलाई होती है तो भी उस भलाई का लाभ उन्हें नही मिल सकता
मुनिराज बकरे की भलाई के लिए कार्य नही करे यह उनकी अपनी इच्छा है पर सोच कर यदि देखा जाय तो अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, विशेष भलाई उसी की होती है । जैसे कि किसी स्नी को सौभाग्यवती बनी रहने का आशीर्वाद देने पर, उसके पति का जीवन, न बछने पर भी, अक्षुण्ण ही बनाया जाता है, उसी प्रकार आचार्य भीखणजी के शिष्य मुनिराजो ने चाहे बकरे के जीने की मंगल कामना विल्कुल न की हो पर बकरे मारनेवाले को समझाने का जो अथक प्रयत्न किया वह 'वकरे को जीवन-दान के पारितोषिक' से किसी प्रकार कम नही कहा जा सकता ।
उनके कथनानुसार उस समय बकरे को वचा कर उसकी भलाई करने की भावना चाहे उनके हृदय में रत्तीभर भी न रही हो पर उनकी महानता को देखते हुए यह तो शत-प्रतिशत कहा जा सकता है कि उस समय उनके हृदय में बकरे को बुराई करने की भावना तो अशमात्र भी नही थी । उत्तम पुरुष यदि भलाई न कर सके या न करे तो न भी करें, पर बुराई कभी नही करते । बकरे के वचने मे यदि वकरे का बुरा होता तो मुनिराज उस कार्य को करना स्वीकार ही नही करते । एक का बुरा करके दूसरे का भला करना मुनियो को कल्पता ही नही । आचार्य
* भिक्षु दृष्टान्त १२८, पृष्ठ ४५ पिण साधु वकरांनो जीवणो वाछै नहीं ।
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