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व्याख्यान तो स्वकीति के इच्छुक भेद-भाव बढाने वाले चतुरो के है जो मान अभिमान मे डुवे, अपनी उदर पूर्ति करते फिरते है। यह इन्ही महानुभावो की कृपा है कि आज हम जैनी ऐसी छिन्न-भिन्न अवस्था में अपने आप को पा रहे हैं और ऐसी जर्जर अवस्था को देख करही, इच्छा न होते हुए भी कुछ अप्रिय लिखने को विवश होना पड़ा है।
प्रभु-पूजा तो वालक से वृद्ध, जड़ से महान् पडितराज तक को, किसी न किसी रूप मे हित पहुंचाने वाली बहुत ही सरल क्रिया है। साथ-२ यह व्यवहार इतना प्रभावोत्पादक है कि पत्थर मे भी फूल खिला देता है। ऊँचे से ऊँचे अध्यात्मवादी से लगा कर वालक जैसे अति सुकोमल मन की रुचि के अनुकूल, गुणो की तरफ बढने के सभी साधनो का इसमे सागोपाग समावेश है। बालको की दृष्टि से तो मंदिरो का उपयोग अपना सानी नही रखता। जब एक बालक को भाव से झुक कर, हम परमात्मा की मूर्ति को वन्दन करते, चन्दन की विंदी लगाते, पुष्प चढाते अयवा जय वोलते देखते हैं तो हम अपने इस प्रयत्न को बडा ही महत्वशाली अनुभव करते है। बालक पन ही से बच्चो मे परम पिता परमात्मा में अनुराग उत्पन्न हो, उनकी अति कोमल वृत्ति पर प्रभु-गुणो का रग जमे एव प्रभु गुणो में उनकी रुचि बढे इससे अधिक उपयुक्त सरल क्रिया और कौन-सी हो सकती है ? बालको के हृदय की सरलता और तन्मयता को देखकर हमारा हृदय भी आनन्द-विभोर हो जाता है और हम प्रभु गुणो में और अधिक भाव से झुक जाते है । मूर्ति-कला का रहस्य महान् है । जितना ही हम इस पर गहराई से चिन्तन करेगे, उतने ही हम अधिक आकृष्ट होते जायेगे।
हमे तो विवेक से अपने हित को प्रधानता देनी है। खर्च का जो भय हम महसूस करते है वह नितान्त हमारी ना-समझी है। आगे आप देखेंगे कि अति उच्च श्रेणी की सामाजिक प्रणाली के कारण बहुत वडा लाभ कितने कम-सेकम खर्च में लिया जा सकता है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर स्थिति वाले भाई, उल्टे अधिक फायदे में रहते हैं। खर्च के लिए किसी को भी धवडाने की कोई आवश्यकता नही। अधिक खर्च करें यह हमारी इच्छा पर निर्भर है ।
उद्देश्य भिन्नता :--हमे पूजा के असली रहस्य को समझने की आवश्यकता है। लोगो ने जो शंकाये की थी वे कितनी निर्मूल है, उनका विचार हम
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