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हवे, सम्पूर्ण सिद्धि तणी, शी वार छै हो लाल ॥तणी० ॥ देवचन्द्र जिनराज, जगत आवार छै हो लाल ॥ जगत०॥
दीठो सुविधि जिणन्दहे दीनानाथ ! जब आप जैने परम पुरुप का हमे आधार मिल गया है तव यह शत-प्रतिगत निश्चय हो गया है कि हमारी पूर्ण सफलता प्राप्ति मे अव विलम्ब का कोई कारण नहीं है यानी हमे अति शीघ्र सर्व सिद्वियो की प्राप्ति निश्चित रूपेण हो जायेगी। देवचन्द्रजी महाराज फरमाते है-“हे जिनराज भगवन् । ससार के सर्वप्राणियों के लिए आप परोक्ष रूप मे परम सहायक है।
वासुपूज्य स्वामी के स्तवन मे तो पडितजी ने हृदय खोल कर रख दिया है। इससे अधिक और क्या स्पष्ट हो सकता है ? ऐमे सार गभित भावो के लिए हम पडितजी को कोटि-कोटि नमन करते है कि जिनकी कृपा से हमे भी सही तत्व का अल्पाग समझने में एव जिनेश्वर-भगवान की शुद्ध भक्ति मे, यत् किंचित् प्रवृत्त होने में बडी सहायता मिली है। वे फरमाते है
अतिशय महिमारे अति उपगारता रे, निर्मल प्रभु गुण राग । सुरमणि, सुरघट, सुरतर तुच्छ तेरे, जिनरागी महाभाग ॥ पूजना० ॥
पूजना तो कोजे रे वारमा जिनतणी रेहे परमात्मन् | आप मसार के प्राणियो का अत्यन्त उपकार करने वाले हैं। आपकी महिमा अपार है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जिस प्राणी ने आपके निर्मल गुणो का रस-पान कर लिया है, उनमे आनन्द मग्न हो गया है उसके लिए तो सुरमणि, सुरघट और सुरतरु भी कुछ नही रहे । आपके गुणो की महान्ता के सामने उसके लिए ये सव गौण हो गये है। वस्तुत. जिसकी आपके गुणो में रुचि हो गई है वहीं महा भाग्यशाली है अर्थात् सौभाग्य से ही किमी प्राणी को आपके गुणों में रुचि वनती है।
पडितजी के स्तवनो में कहीं भी दूसरो की निन्दा, कटाक्ष, दीनता, व्यर्थ का फैलाव, सकीर्णता आदि खटकने वाला कोई अश ही नहीं है। केवल परम पुरुषो के गुणों का अनुमोदन एव प्रशसा करते हुए अपनी कमजोरी को मिटाने एव अपने को ऊँचा उठाने का एक शुद्ध प्रयत्न मात्र है।
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