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जायेगी और हमारी प्रीति का सारा रूझान एक परमात्मा पर ही आकर टिक जायेगा। हम अनन्त से एक पर आ जायेगे। फिर प्रीति छोडनी रहेगी तो 'एक' से ही। इस तरह यह मार्ग सरल हो जायेगा। यही एक बहुत बड़ा लाभ परमात्मा की प्रीति में समाया हुआ है इसलिए भविजनो को निसकोच भाव से परमात्मा से प्रीति जोडनी चाहिए।* अजीतनाथ स्वामी के स्तवन मे महाराज फरमाते है
अज कुल गत केसरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ते भवि लहरे, आतम शक्ति संभाल ॥अजित०॥
_ अजित जिन तारजो रे-- *(१) परमात्मा परम पुरुष हैं, गुणों के सागर हैं। हमें गुणों को अपनाकर ही विश्राम लेना है। इसलिए परमात्मा से प्रीति करना-गुणों ही से प्रीति करना हुआ अर्थात् हम सोधे गुणों पर ही पहुंचते है। इसलिए यहाँ सम्पूर्ण कार्य-सिद्ध हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में परमात्मा से प्रीति छोडने का भी कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता। जैसे
अस्त्र प्राप्ति की इच्छा से यदि देव की आराधना करें और देव-दर्शन के पहले ही अस्त्र की प्राप्ति हो जाय-उद्देश्य पूर्ण हो जाय- तो 'देव-दर्शन' मिल गया, ऐसा ही समझा जाता है। दर्शन न हो तो भी कोई बात नहीं।
(२) 'राग और द्वेष' की परणिति को कम करने का उपाय समझना आवश्यक है। हम दोनो को एक साथ छोड़ने में समर्थ नहीं हैं। 'द्वेष' को कम करने के लिए, पहले हमें 'राग' को और अधिक मात्रा में अपनाना पडता है। जैसे
मैले कपड़े में-इच्छा और आवश्यकता न होते हुए भी- पहले पानी और साबुन पहुंचाते हैं। जब मैल छंट जाता है तो पानी के सहयोग से मैल और साबुन को निकाल फेंकते है। फिर पानी को भी सुखाकर निकाल देते हैं। इस तरह विवेक पूर्वक अपना इच्छित मनोरथ पूर्ण करते हैं। यदि 'पानी और साबुन को ग्रहण करना अगीकार न करें, तो क्या हम मैल को हटाने में सफल हो सकते हैं ? इसी तरह मुमुक्षु प्राणियों को समझना चाहिए कि राग को अपना कर ही वै देष को हटाने में सफल हो सकते हैं।
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