________________
पीछे कर चुके है । अव हमें इसकी उपयोगिता परखनी है । जैन परपरानुसार इसमें न तो अन्य मतावलम्बियो की तरह परमात्मा से द्रव्य वस्तुनो की प्राप्ति की बाधा है और न अन्य किसी प्रकार की सहायता के लिए, दीनता ही है । महान् आत्माओ के शुद्ध गुणो का आदर मात्र है । वह भी परम निर्मल-निमित्त कि इस तरह के व्यवहार से ऐसे शुद्ध गुणो मे हमारी भी सोई हुई रुचि जाग जाय । इसलिए हमारे लिए यह आवश्यक है कि पहले हम अपने और दूसरो के उद्देश्य मे क्या अन्तर है, इसे भली प्रकार समझें ।
बहुतो की ऐसी धारणा है कि थोडी बहुत द्रव्य वस्तुओं की प्राप्ति या अन्य किसी प्रकार की सकट के समय सहायता मिलने की आशा रखे बिना, कम ज्ञान वाले या हम सभी सहज स्वार्थ प्रवृत्ति वाले होने के कारण, दिल से अपने परमात्मा या इष्ट की न तो सच्ची आराधना कर सकते है और न इसके लिए दूसरो को अधिक आकर्षित ही, अपितु और अधिक अभिमानी बन जाने का ही भय है । इसलिए चाहे इस तरह हमारी आशा की पूर्ति हो अथवा न हो, पर आशावादी रहने ही में लाभ है ।
उनमे ऐसी धारणा, उनके सरल स्वभाव से हमारे हित की दृष्टि से उत्पन्न हुई हो, अथवा उनके कपट पूर्ण किसी स्वार्थ साधन की दृष्टि से, जैन मान्यता इसका समर्थन नही करती बल्कि इसे गलत और बुरी समझती है । बच्चा किसी इनाम या किसी वस्तु मिलने की आशा में जी जान से कार्य करे और फिर भी यदि आशानुसार उसे न मिले तो वह अत्यन्त निरुत्साहित हो जाता है और उसका सम्पूर्ण विश्वास जाता रहता है। ऐसा धोका खाकर, वह भविष्य में अधिक सक्रिय रहना तो दूर रहा उल्टे निष्क्रिय हो जाता है । इसी तरह यदि हम किसी आशा को लेकर दौड लगाते हैं और जब समय पर हमारी आशा फलवती नही होती तो हमारे मन में एक बडी भारी निराशा और अश्रद्धा पैदा हो जाती है । हम सोचने लगते है कि यह सब झूठ, प्रपच, और ठग वाजी है । न देव है, न देवता । हमें मूर्ख बनाने का एक रास्ता है । इस गहरी निराशा से हमारे मन में एक ऐसी ग्लानि पैदा हो जाती है कि हम एक दूसरा ही रूप ले लेते हैं । यानी हम नास्तिक बन जाते है ।
हमे रोग हो गया, हमारा धन चला गया या हम किसी प्रकृति-प्रकोप में फँस
11
- १६१