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इसी प्रकार गुणो को दर्शाने के लिए भी हमें एक माध्यम की आवश्यकता होती है। ऐसे महान् गुणो को धारण करने वाले तो केवल भगवान ही हो सकते हैं। इसलिए हमने उन्ही को माध्यम चुना। उनका व्यक्तिगत नाम तो इसलिए दे देते है कि उनका सम्पूर्ण उज्जवल इतिहास हमारे मन को मजबूत बनाने मे अविक सहायता कर सके। आखिर हमें तो अपना हित देखना है ।
'मूर्ति भगवान के द्रव्य शरीर की नही उनके गुणो की है-ऐसा ठीक से समझ लें तो हमारे आपस में फैले बहुत से मतभेद अपने आप समाप्त हो जायेंगे। फिर यह कोई नही कहेगा कि त्यागी भगवान को भोगी कैसे बना दिया, या मूर्ति में गुप्त अग या आँख का दिखाया जाना जरूरी है। जब मूर्ति भगवान् के द्रव्य शरीर की नही तव ऐसे विचारों का जो केवल उनके द्रव्य शरीर ही से सम्बन्ध रखते है, मूल्य ही क्या है। फिर तो हमारा एक ही लक्ष्य रहेगा-मूर्ति को अधिक से अविक भाव-पूर्ण वनाना। ताकि परमात्मा के अनन्त गुणो की अच्छी से अच्छी झलक हमें अधिकाधिक रूप में मिल सके। माध्यम को हम जितना ही कलापूर्ण ढग से वनायेगे गुणो की झलक उतनी ही प्रभावशाली, स्पष्ट और स्वच्छ होगी। ___ वारीको मे देखें तो पता चलेगा कि मूर्ति का प्रत्येक अग-प्रत्यग गुणो को दर्शाने में पूर्ण सक्षम है। किन्तु इस भावपूर्ण मुद्रा में गुणो की झलक, मुखारविन्द से ही अधिक मिलती है । इसमें भी आँखो का अपना विशेष स्थान है । यद्यपि भावो का प्रदर्शन मुखारविन्द से ही अधिक होता है पर दूसरे-२ अग-प्रत्यग भी अपना-२ सहयोग देकर उन भावो में तीव्रता या पूर्णता अवश्य उत्पन्न करते है। विना 'घड' के मुंह, और विना 'मह' के घड को देखने से पता चलता है कि दोनो के सहयोग की कितनी आवश्यकता है। एक के न रहने से कितनी विद्रुपता आ जाती है। __ भगवान की ध्यानावस्था का ज्यो का त्यो स्वरूप-उनका सीधा बैठना या खडे रहना, दोनो हाथो की स्थिर अजली, बद नेत्र और हँस-मुख चेहरा आदि से चलता है। __ हमारी यह धारणा कि भगवान की समवसरण की अवस्था को लक्ष्य में रख, आँखो को खुली दिखाना ही उपयुक्त है, सहज ही जंच जाय ऐसी बात नही है,