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लाभ चाहे किमी महारे ने हो, होना चाहिए लाभ। नाम, चित्र, या मूर्ति के सहारे मे प्राप्त लाभ को हम परख सकते है कि उनमे काफी अतर है या नहीं? हमारे तो यही समझ में आता है कि नाम या चित्र मे अनेक गुणा अधिक लाभ हमे मूर्ति ने पहुंचता है।
घर पर भी जिनराज भगवान की प्रतिमा रखकर हम यह लाभ उठा सकते है और कई उठाते भी है पर समुदाय के नहयोग मे जो विशेप लाभ प्राप्त होता है वह प्रत्येक को घर पर नही हो सकता। घर पर तो खर्च भी बहुत अधिक पड जाता है जिसको साधारण स्थिति वाला व्यक्ति वहन नही कर सकता।
जब हम नव मम्मिलित होकर पूजा करते है तो हमे भी बहुत अधिक आनन्द और लाभ की प्राप्ति होती है। यहाँ नभी का एक ही काम ‘परमात्मा का गुणगान करना है । ध्यान इधर-उघर चला भी जाता है, तो भी गीघ्र सभलने का अवसर मिल जाता है। मतलब यह कि एक दूसरे के सहयोग और देखा-देखी मनमें अधिक उमग चार उल्लास उत्पन्न होने के कारण हमे हमारे उद्देश्य में बहुत अधिक मफलता प्राप्त हो जाती है। हमें समाज के साथ ढग से रहना भी तो मीखना है । समुदाय की कृपा मे यह अभ्यास भी हो जाता है। फिर भी यदि किसी की रुचि भिन्न हो या ऐमे सुयोग की प्राप्ति न हो सके, तो वात भिन्न है।
अब रही विपयो और कपायो के वृद्धि की वात सो निश्चय ही हमे इनसे घृणा होनी चाहिए। परन्तु जब तक हम इनके असली कारणों का पता नहीं लगा लेंगे, हम अपना उचित सुधार या वचाव कभी नहीं कर सकते। किमी भाई की जरा-नी कमी या भूल को देखकर हम शीघ्र पूजा, प्रतिक्रमण,व्याख्यान या धर्म को ही बुरा समझ लेते हैं और यहां तक कि उन्हें छोड बैठते है पर यह हमारा सही निर्णय नहीं कहा जा सकता। वालो के वढ जाने पर, उनको न काट कर, मस्तक को काट डालना अच्छा नहीं। 'मन्दिर'-हमारे विपयो और कपायो के कारण है', ऐमा मान लें तो हमारी बडी भारी भूल होगी । मदिर छोड देने से हमारे कलह और विषय शान्त हो जायेगे, ऐसा भी सभव नही है।
जो मन्दिर, मस्जिद कुछ भी नहीं मानते है कलह या अन्य अवगुण तो उनमें भी विद्यमान है । फिर मन्दिर को ही दोप क्यो दे ? कपायो और विपयो के कारण हमारे मन्दिर नहीं हैं । इनका असली कारण है हमारे विवेक और उपयोग
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