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वालो से उनके खर्च न चल सकते हो या सभाले न जा सकते हो तो आवश्यकता से अधिक मदिरो को बंद कर देना ही अच्छा है । यह सुनने में बहुत अटपटा लगता है कि बनाने वालो ने तो बनाये और आज हम बद करने का कह रहे हैं या सोच रहे हैं । इस तरह तो हमारे सभी मंदिरो में ताले पड जायेंगे । पर नही, हमे स्थिति को समझ कर हो चलना पडेगा । दस अव्यवस्थित मंदिरो को खुला रखने की अपेक्षा दो व्यवस्थित मंदिरो को खुला रखना ज्यादा अच्छा है और इसी मे हमारे उद्देश्य की पूर्ति है। मंदिर हमारे स्वाध्याय के लिए है । किराये - दारो से पूजवाने के लिए थोडे ही हैं । भविष्य में आवश्यकता पडने पर मंदिर बनाते कौन-सी देरी लगेगी ।
किसी के मन मे हमारे कार्यो से जरा भी सकोच या उचाट पैदा हो गई तो समझ लीजिये अभी हमने पूजा के वास्तविक अर्थ को नही समझा है । यदि हम आर्थिक दृष्टि से अच्छी स्थिति वाले है तो हमे दिल खोलकर प्रभु भक्ति मे अपना धन लगाना चाहिए । पर जो कुछ लगावे किसी पर एहसान न लादते हुए, अपनी पूरी प्रसन्नता एव बिल्कुल निर- अभिमान पूर्वक । यदि हम गरीब है तो हम कम-से-कम में, लाभ उठाना सीखना चाहिए ।
पूजा मे द्रव्यों के निमित्त या अन्य उचित व्यवस्था के निमित्त जो भो खर्च हमारे हिस्से मे पड़ता हो और देने की हमारी शक्ति हो तो हमे नि. सकोच भाव से, कम-से-कम उतना तो दे हो देना चाहिए। सभव है मंदिर में इकट्ठे हुए करोडो रुपये पड़े हो और अभी व्यवस्था के लिए हमसे लेने की आवश्यकता न भी पड़ती हो या बहुत से श्रीमत अपनी जेब से अधिक धन देकर उस व्यवस्था को चला देते हो पर यह स्वीकार करना हमारे लिए उचित नही है । हमारी शक्ति रहते हम किसी का क्यो ले और क्यो अपने मे न देने की, या मुफ्तखोरी की आदत उत्पन्न होने दें। यदि हम अपने पेट की खुराक पचास रुपये निकाल सकते है, तो आत्मा की 'खुराक ' के लिए पाँच रुपये क्या न निकाल सकेगे ? अन्य पर हम आश्रित क्यो रहे ?
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हमारी तरह छो मनोवृत्ति रखते तो क्या कभी इतना धन इकट्ठा होता इकट्ठा हो गया है, वह तो कभी भी शेष हो सकता है । तव ऐसी प्रवृत्ति रखने वाले हम जैसो से क्या हो सकेगा ? हमारी व्यवस्था में कितनी शिथिलता
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