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की कमी और हमारे मन की कमजोरी । जब हमने मन पर नियत्रण रखना सीखा ही नही, तब हम ऐसी विषम स्थिति को कैसे रोक सकते है ?
मन्दिर मन को नियंत्रित करने की एक स्वाध्यायशाला है । मन्दिर मन के गुप्त रोगो का एक मुफ्त इलाज है । यह आत्मा को सबल बनाने का एक साघन है । अन्य स्थानो पर हम उपायो का अनुभव ही प्राप्त करते हैं पर मन्दिर हमारा अभ्यास क्षेत्र और कर्म क्षेत्र दोनो है । यह कषायो और विषयो को बढाने वाला नही, उनसे निवृत्ति दिलाने वाला स्तम्भ है ।
कषायों का निवारण : कषायो और विषयो की जो समय-२ पर वहाँ भी वृद्धि हो जाया करती है, उसका कारण मन की कमजोरी ही है । जव तक मन सबल नही होता यह हानि रुकती नही और इवर आत्मा को सवल बनाने वाले इस प्रयत्न को त्यागना भी उचित नही । इसलिए हमे पूरी सावधानी रखनी चाहिए ।
विषय-वासना या विकार उत्पन्न न हो इसके लिए स्त्री-पुरुष दोनो ही यदि उपयोग रखे तो ज्यादा अच्छा हो । प्रत्येक को अपनी - २ दृष्टि संभाल कर रखनी चाहिए | स्त्रियो का यह कर्त्तव्य है कि वे अपनी वेश-भूपा मंदिर के लिए विल्कुल सीधी-सादी रखे । ऐसी तडकीली-भड़कीली पोशाक, जिससे मनुष्य आकपित न होता हो तो भी आकर्षित हो, पहन कर मंदिरो मे कदापि न आवे । पोशाक स्वच्छ जरूर हो, पर पाँच मनुष्य देखे या अंग-प्रत्यग दीखे ऐसी भावना से पहनना उचित नही है । स्त्रियो पर तो उनके शरीर की बनावट के कारण भी, बहुत ast जिम्मेवारी आती है । यदि वे जरा गभीरता और विवेक से काम ले तो पुरुषो को भी सुधारने में बडा सहयोग मिल सकता है और मगलमय कार्य को सब बहुत अच्छी तरह कर सकते है ।
वह्नो को देख कर ही यदि विकार उत्पन्न हो जाता है, तो क्या किया जा सकता है ? इस ससार को छोड कर वे जायेगी कहाँ ? उपाश्रय, मोहल्ला, गाव यानी सभी जगह वे रहेंगी ही । फिर मंदिरो में ही उनके आने का इतना भय क्यो ? उनका मदिरो मे आना वद करना भी तो उचित नही ठहरता। उनका सुधार भी हमारे सुधार के समान ही महत्वपूर्ण है । इतने पर भी यदि स्थिति अनुकूल न वने, तो हम अपने मंदिर आने-जाने के समय को थोड़ा आगे-पीछे भी रख सकते है । विवेक और उपयोग से ही यह समस्या हल हो सकती है ।
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