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मा उस मार्ग में वढने में कारण स्वरूप वन सहयोग देने वाले अन्य तमाम देव-देवियो या भाइयो का हम चाहे जितना उपकार मानें, चाहे जितनी इस उपकार या उनकी सफलता प्राप्ति के लिए उनकी प्रशसा करें, हमारे लिए कोई विशेष वात नही। पर किसी प्रकार की दीनता हमारे मन में नही रहनी चाहिए। हम मनुष्य हैं, महान् आत्मवल के स्वामी हैं। सव शक्ति हमारे भीतर है। हमें अपनी असलियत को समझने की आवश्यकता है। यदि देव हमारी सहायता कर सकते हैं तो हमारे स्वार्य रहित नमस्कार से खुश होकर वे जरूर हमारी सहायता करेंगे। यदि हमारी सहायता नहीं की जाती है और हम कष्ट में पड़ जाते हैं तो भी हमारे लिए निराश होने की कोई बात नही। हमने तो उनसे सहायता के लिए याचना ही नहीं की थी। ___ जिनराज भगवान की भक्ति से भी यदि हमें किसी प्रकार का लाभ न पहुंचे तो भी हमें जरा-सी निराशा या अत्रद्धा पैदा नहीं होनी चाहिए। कारण सब जगह हमारा प्रयल ही काम आता है। इस प्रकार के अवलम्बन से, आत्मवल को संगठित कर सकटो का सामना करने में हम कुछ अधिक ही समर्थ हुए हैं। ____सफलता प्राप्ति में नैमित्तिक रूप से सम्पूर्ण उपकार महापुरुषो का यदि मान ले तो यह हमारी विनम्रता ही है पर असफलता के लिए तो हमें, अपने आपको ही पूर्ण जिम्मेवार समझना चाहिए न कि किसी दूसरे को। जैन प्रतिमा पूजन में और अन्य लोगो को प्रतिमा पूजन में उद्देश्य की भिन्नता के कारण हमें महान् अंतर की अनुभूति होगी।
हमारे दवे गुणो को विकास में लाने के उद्देश्य से, इस प्रयल को प्रभावशाली, सरल और निश्चित समझकर ही हम इसे अपनाते है। हमें यह समझना चाहिए कि इस महान् प्रभावशाली और सरल प्रयत्न से हम अधिक-से-अधिक लाभ उठाने में कैसे समर्थ और सफल हो सकते है। ___मूर्ति रचना की विशेषता:-समस्त मन्दिरो में, भिन्न-२ रगो और पदार्थों, धातु, पाषाण आदिसे निर्मित जिनराज भगवान की अनेक मूर्तियो को हम देखते हैं। यद्यपि रूप-रेखाम्रो में सव मूर्तियाँ एक जैसी हैं किन्तु केवल मूर्ति को देख कर यह नहीं बताया जा सकता कि यह किस तीर्थंकर की मूर्ति है । ध्यानस्य भाव, शान्त वृत्ति, प्रसन्नचित्तता एव अन्य शुद्ध लक्षणो को देखकर केवल इतना ही