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और जो देते हैं लेता ही रहता है । आपके ऊपर दोनो की क्या प्रतिक्रिया होती है ? जहाँ पहले के सकट पर आप तन-मन-धन से सहायता के लिए उद्यत रहते है वहाँ दूसरे के लिए आँख-मिचौनी करते हुए घृणा भाव से वचने की चेष्टा करते है । वस्तुत स्वार्थ के वशीभूत होकर किये गये नमस्कार से हमें एक बदबू की अनुभूति होती है ।
सकट हमारे ऊपर आते रहते हैं, आते रहेंगे पर सकटो में भी हमें सभल कर रहना है । हाथ जोड कर प्रार्थना करने से कोई हमारे सक टाल देगा या अधिक सुख प्रदान कर देगा ऐसा समझना हमारी नितान्त भूल है र महान् दीनता है । थोडी देर के लिए यदि यह मान भी ले कि देव चाहें तो हमारी सहायता कर सकते हैं तब भी, वे हमारी इस स्वार्थपरायणता के कारण कभी खुश नही हो सकते । यदि वे हमें इस तरह के सकटो से बचा सकते तो उनके दो एक भक्त मृत्यु- मुख से बचे हुए, इस धरती पर जरूर मिल जाते । वे ही यदि सकट से बचा सकते तो धर्म-परायण भारत यवनो और अग्रेजो के पजे में हजारो वर्षो तक rest नही रहता और न लाखो गायें हो काटी जाती । जब ऐसे प्रश्नो के हम सतोषजनक उत्तर नही दे सकते तो हमें समझना चाहिए कि हम भूल कहाँ कर रहे हैं ? इस तरह की गलत मान्यता से हमें नीचा देखना पडता है और हम अपने देवो को भी नीचा दिखाते है ।
सकट के समय हम अपने परमात्मा को याद करे, यह विल्कुल उचित है और ऐसा हमें बरावर करना चाहिए पर यह समझकर नही कि वे हमारी सहायता कर देंगे बल्कि यह समझ कर कि ऐसे सकटी का, जो उनके जीवन काल में उन पर भी आये,वडे आत्म-वलसे डटकर, बहादुरी से उन्होने सामना किया और विजयी हुए । हमें भी वैसी ही बहादुरी रखनी है । जैसा शरीर उन्हें मिला था वैसा ही शरीर हमें भी मिला है, हम भी उन्ही की सतान है । फिर क्यो न वैसे ही शक्तिशाली बन कर डटे रहे । दुख में हो अथवा सुख में, ऐसे विजयी महापुरुषो को याद रखने का यही अर्थ कि उचित रास्ते पर चलने से हिम्मत न हार जायें । उनको याद रखने से हमारा आत्मबल सगठित हो जाता है । उनके पद चिह्न के मनुकरण से हमारा मार्ग सही और सरल बन जाता है और कार्य में जोश बना रहता है; जैसे, बटोही भटक जाने पर किसी के पदचिह्नों के सहारे गाव का रास्ता
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