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*'शका समाधान में यह अवश्य स्वीकार किया गया है कि मूर्ति को भगवान जैसी ही समझकर अपनाने से वडा लाभ है जैसे किसी समस्या को हुन करन के लिए उनी के उत्तर को, क, ख, ग, आदि मान कर चलते है ।
यहां आगय नमझने की आवश्यकता है । इस प्रकार ना कर चलने से
पूर्ति में मन को बडा सहारा मिलता है परन्तु क,जग को प्रश्न का उत्तर मान लेने पर भी यह मतलब नहीं होता कि उसका उत्तर भी यही है और अब प्रग्न को हल करने की जरूरत नही रही । वन्नुत इम सहारे से प्रश्न के सही उत्तर तक पहुँचना है । मूर्ति को देखकर 'भगवान है' ऐसा भाव धारण करने पर एक अनोखी तल्लीनता उत्पन्न होती है । केसर, चन्दन, फूल, गहने गौर यहाँ तक कि मूर्ति भी क्षण भर के लिये हमारे मामने से अदृश्य हो जाती है। उस समय परमात्मा के दिव्य ध्यान मे हमारे नामने कोई वस्तु नही रहती । ज्योही हमारी तन्मयता शेप हो जाती है त्योही मूर्ति सारे पदार्थों सहित, फिर अपने रूप में प्रगट हो जाती है । ये मत्र परिवर्तन मन की गति से सम्बन्धित है । यह गति अत्यन्त सूक्ष्म और गहन होने के कारण पहचान में तभी आती है जब कठिन नावना की जाती है । चूकि यह गति अपने अनुभव से ही पहचानी जा सकती है इसलिए इनको और स्पष्ट करना कठिन है ।
मूर्ति को 'अन्तर्ध्यान हो जाने वाली' घटना सदिग्ध लगती है पर हे परखने लायक । चिडिया की आंख भेदने के समय गुरु द्रोण ने अर्जुन 1 पूछा - " अर्जुन क्या दे रहे हो ?" अर्जुन ने कहा- "आचार्य । चिडिया की ख-ही-जाँख दीख रही है ।" विचारिये, पेड और चिडिया का सारा शरीर चना गया ? वन यही सोचने और समझने की बात है ।
सम्भव है हमे किसी व्यवहार की आवश्यकता न रहे या वह हमारे मन की रुचि के अनुकूल न हो । पर वह गलत है, व्यर्थ है-ऐसा निर्णय कर डालना उचित नहीं । मूर्ति नव नमय मूर्ति ही रहती है । चाहे उसके सामने कोई गाये, वजाये, सजाये या जो चाहे करे ।
* साक्षात भगवान समझ, मन को कैले घोसा दें ?
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( देखिये पृष्ठ ४७-४८ )