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कर डालना पौद्गलिक सुखो की होली जलाते हुए अक्षय आत्मिक सुख को ही प्राप्त करना है। जब परमात्मा में प्रगाढ अनुराग उत्पन्न होता है तभी ये सव व्यवहार मनुष्य अपना सकता है अन्यथा अपने सुखो को न्योछावर कर डालना खेल-तमाशा नहीं है। साधारण जन को, जो आनन्द पाने और खाने मे आता है वह त्याग कर चढाने में जल्दी नहीं आता। कुछ भी हो परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने की यह एक महान् कड़ी है।
मूर्ति-पूजा में आस्था रखने वालो में से कुछ श्रद्धालु अपने ढग से पूजा करते है पर किसी द्रव्य वस्तु का,चढाने या सजाने के निमित्त, मूर्ति से स्पर्श कराना उचित नहीं समझते। उनका यह भी कहना है कि स्त्रियो को पूजा करने का हक नहीं है कारण जब मूर्ति को परमात्मा के समान समझ लेते है तब उसके साथ वे ही व्यवहार करने चाहिए जो परमात्मा की मौजूदगी मे उनके साथ किये जाते थे। क्या उस समय स्त्रियाँ उनको छू सकती थी? उस समय आप उनके शरीर पर फूल रखते या चदन का लेप करते ? उनको गहने पहनाते ? यदि नही, तो फिर उनकी मूर्ति के साथ यह व्यवहार क्यो ? ___मनुष्य के मस्तिष्क मे कब क्या विचार उत्पन्न हो जाते है कोई नही कह सकता। यह भी एक तरह की शका ही है। ऐसे विचार का उत्पन्न होना बिल्कुल स्वाभा- . विक है। वस्तुत भगवान की अनुपस्थिति में, मूर्ति तो उनके गुणो को आत्मा मे जगाने का एक अवलम्बन मात्र है। शकाग्रस्त व्यक्तियो से ही पूछा जाय कि जब मूर्ति को उन्होने भगवान के समान मान लिया और उसके साथ प्रत्यक्ष भगवान के साथ जैसा ही व्यवहार करना उचित समझा, तब उसे तालो मे वन्द करने का क्या अर्थ है ? उसका प्रक्षालन आदि क्यो करवाते है ? यदि कहे कि जब तक पूजा करते हैं तब तक के लिए ही भगवान मानते है, वाद मे नही। तो बाद में क्या मानते है ? यदि बाद में मूर्ति मानते है तब वे उस जादूगरनी से कम नही जो मनुष्य को भेड बनाकर रखती थी। जब चाहती, उसे मनुष्य बना लेती, जब चाहती भेड़ बनाकर रखती। क्या ऐसा सोचना हमारे लिए उचित है ? दुनिया इसीलिये हमारी मूर्ति-पूजा के सम्बन्ध में अनेक तरह की शकार्य करती है। हमें गहराई से विचारना है कि मूर्ति को भगवान के सदृश मान लेने से भी मूर्ति भगवान नही 'मूर्ति' ही रहती है।
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