________________
असल में बात यह है कि किसी के कार्य-कलापो को याद कर और साथ-२ उसकी मूर्ति को प्रत्यक्ष देख, दोनो के सहयोग से हमे बुद्धि से अपने मस्तिष्क में एक कल्पित फिल्म बनानी पडती है, जिसमे काफी योग्यता की आवश्यकता है, पर फिल्म में हमे इन दोनो का मिश्रण स्पष्ट रूप में बना-बनाया सरलता पूर्वक मिल जाता है । मूर्ति की उपयोगिता के सम्बन्ध मे सफलता न मिलने के कारण, निराश हुए उस पथ के पथिकमे पूछिये कि ऐसे पथके विजेता की मूर्ति उसके सामने रखने मात्र से ही उस पर क्या प्रभाव पडता है ? वह उसी समय उस महान् विजेता के चरणो में नत मस्तक हो जायगा, इसलिए कि ऐसी विकट स्थितियों का सामना करने मे वह कमजोर रहा पर वे धन्य है जिन्होंने ऐसे महान् दुष्कर कार्य में भी सफलता प्राप्त की । सम्भव है ऐमे निराग काल मे विजेता की दृढता को तेजी से याद करके उसमें भी नया जोग उमड पडे, उसे फिर से नई प्रेरणा मिल जाय । वह अपनी शक्ति संगठित करने में सफल हो जाय और सम्भव है वह विजयी भी बन जाय । हमारी तरह पूज्य भाव से तो विजेता की मूर्ति को वह इसलिए नही अपना पाता कि हमारे विजेता मे, जैसी हमारी श्रद्धा है वैमी उस विजेता मे उसकी श्रद्धा नही है । तुलना में अत्यन्त कमजोर होने के कारण एव विशेषकर उनके द्वारा किये गये उपकार की उदारता की दृष्टि से हम हमारे विजेता को बहुत ही अधिक पूजनीय समझते हैं जहाँ वह अपने आप को उस विजेता के समान समझता है । ऐसा होते हुए भी विजेता की मूर्ति को देखते ही उसके मन मे विजेता के प्रति इतना सम्मान पैदा हो जाना कम महत्वपूर्ण नही ।
श्रद्धा की विशेषता :- गावीजी की मूर्ति भी हमें उतनी ही पूज्य लगेगी जितनी उनके प्रति हमारी श्रद्धा होगी । आज वे हमारे बीच नही हैं पर उनकी मूर्ति या चित्र को देखते ही भिन्न -२ लोगो पर भिन्न- २ प्रकार का प्रभाव पडता है । कुछ की आँखो में आंसू छलक आते हैं तो कुछ वेपरवाही से ऊपर-२ ही से हाय जोड लेते हैं । गावीजी के चित्र या मूर्ति को देखते ही श्रद्धा वालो के मस्तिष्क में उपदेश, उनकी विशेषताएँ और उनके जीवन की विशेष - २ घटनायें इस तेजी से याद हो आती है मानो वे अपने मस्तिष्क में एक घटना चक्र को प्रत्यक्ष देख रहे हैं। मुख्य बात यह है कि हमारा इस दिमागी फिल्म का हीरो (नायक) मूर्ति रूप में हमारे सामने होने से घटनाचक्र का दृश्य विशेष रूप से अधिक स्पष्ट
१७३