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आवश्यकता है। वंद और खुले नेत्रो की प्रतिमायें सबके लिए समान लाभकारी न होने पर भी किसी के विकार या रोप का कारण नही होती लेकिन यह नग्नता तो अनेको के विकार का कारण जो ठहरी । वडे-२ शहरो में तो महान् पवित्र मुनिराजी पर आम जनता कुद्ध होकर पत्थर तक फेक कर अपना रोप प्रदर्शित करती देसी गई है। यह सब इसी कारण कि मुनिराजो की यह नग्नता उन्हें खटकती है। ऐनी स्थिति पर हमें जरूर विचार करना चाहिए । आम लोगो का ध्यान रखना एक जैन का बहुत बडा फर्ज होता है। इसलिए कम-से-कम बहु नत्यक लोगो के हित की दृष्टि से भी ऐसी नग्न मूर्तियो को तो हमें एकान्त में ही रखनी चाहिए जहाँ यह बोर्ड लगा हो-"सिर्फ पहुँचे हुए पुरुषों के लिए।" जैने बच्चों के हित की दृष्टि से बहुत-सी फिल्मो के लिए लिखा रहता है-'सिर्फ वयस्को के लिए'। इसमे सभी का काम बखूबी निकल जायेगा । आखिर अव हम जगल के रहने वाले नहीं है। हमें इस प्रकार के मतभेदो को ज्ञान ने सुलझा लेने चाहिए । हमारे हित को हमें सर्वोपरि स्थान देना है न कि मत को।
मूर्ति की बनावट का अधिक विचार करना कलाकारो और इस सम्बन्ध में अनुभव प्राप्त विजजनो का है। हमे इतना ही अधिकार है कि उनकी इस कलापूर्ण वस्तु ने हममे किस-२ प्रकार के भाव पैदा होते हैं यही उनके कानो तक पहुंचा दें । रुचि भिन्न होने के कारण विचारों में भी भिन्नता हो सकती है इमलिए पडित लोग विवेक से उचित समझे तभी सुधार करें। हमारे मन के अनुसार इसमें गीघ्र परिवर्तन हो जाना चाहिए, ऐसा हमारा आग्रह नहीं है। बहुत सम्भव है कही हमारी ही भूल हो रही हो। आखिर यह अकेले की वस्तु नहीं है । इसलिए इसमें सबके हित का ध्यान रखना अति आवश्यक है।
पूजा में उपयोग :-मूर्ति ही हमारे मदिरो में प्रधान वस्तु है और कोई एसी वस्तु वहां नहीं होती जिस पर हमें विशेष रूप से विचार करने की आवश्यकता हो। मूर्ति को स्थापित करने का हमारा एक मात्र ध्येय यही है कि हमारा चचल मन गुणो की तरफ झुके और अवगुणो से हटे।
मदिर मनुष्य मात्र की मपत्ति है। सभी इनसे लाभ उठाने के समान हकदार है । इस बात को ध्यान में रखकर पूरे विवेक के साथ हमे अपने लिए
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