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कारण पद्मासन और हाथो की स्थिर अजली सम्भवतः भगवान के समवसरण के अवसर के उपयुक्त आसन न भी हो।
फिर भी, तर्क के आधार पर नही, रुचि सगत कहना चाहेंगे कि परमात्मा की मूर्ति में नेत्रो को अधिक फाड़ कर दिखाया जाना उपयुक्त नहीं जंचता । __ बद नेत्र अल्पज्ञो के लिए कम प्रभावक हो सकते हैं पर उनका कार्य अर्घ-खुले नेत्री से निकल सकता है। अब चूकि समाज में अल्पज्ञ ही अधिक होते हैं इसलिए उनके लाभ की दृष्टि से खुले नेत्रो वाली प्रतिमाओ को ही अधिक महत्व दिया है। कुछ बद नेत्रो वाली प्रतिमाये भी साथ-२ रखते है ताकि ऐसी प्रतिमाओ में रुचि रखने वालो का भी काम निकल जाय ।
भगवान के गुणो को दर्शाने में गुप्त-अग के आकार का मूर्ति के साथ कैसा और कितना सहयोग है, इसका ज्ञान अभी तक हमे नही है। यदि इस प्रकार के आकार-प्रकार का दिखाया जाना गुणो से सम्बन्ध न रख, सिर्फ उनके स्थूल शरीर ही से सम्बन्ध रखता हो तव तो ऐसा दिखाने की हठ करना भूल है क्योकि आम लोगो पर इसका बहुत उल्टा असर पड़ता है। प्राय. लोग मूर्ति के शान्त मुखारविन्द को देखना छोड, इसी अग को देखने पर अधिक केन्द्रित हो जाते हैं और फल यह होता है कि हमारी यह परम मंगल कृति उनके विकार या हंसी का कारण बन जाती है। जब भगवान के द्रव्य शरीर से मूर्ति का कोई सम्बन्ध ही नहीं फिर हमारे बहुसंख्यक भाइयो के मनो में सहज ही विकार उत्पन्न करने वाले इस अग को सामने न लाना ही उचित है । पूजनीय माता-पिता के दर्शन हमारे लिए कितने ही हितकारी क्यो न हो, उनकी नग्नता तो हमारे लिए विकारयुक्त, लज्जा पूर्ण या अखरने वाली ही होगी।
मानलें कि मूर्ति में इस अग के आकार-प्रकार का दिखाया जाना अच्छे भावोत्पादक में अधिक सहायक है, फिर बैठी मूर्तियो को न अपना कर अधिक भावोत्पादक खडी मूर्तियो को ही हमें अपनानी चाहिए ? पर ऐसा तो नहीं किया जाता। यदि कहे कि किन्ही-२ को वैठी से और किन्ही-२ को खडी से अधिक भाव उत्पन्न होते हैं इसलिए दोनो ही प्रकार की मूर्तियो का उपयोग रखना पड़ता है जैसे कई बद और खुले नेत्रो की मूर्तियो को साथ-२ रखकर सभी का ध्यान रखा करते है। पर यहाँ हमें और अधिक गहराई से विचारने की
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