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किया जाता है इसका उत्तर देना हमारी सामर्थ्य के बाहर है । कई इसे देवीदेवता का प्रकोप समझते है और कई स्वाभाविक प्रकृति-प्रकोप । हम ऐसे सकटो से अपना बचाव अवश्य चाहते है । देवी-देवता का प्रकोप मान भी लें तब भी दीन बनकर दया की भीख मागना कदापि उचित नही है । देवी-देवता माना कि उशर है और हमारा कुछ भला कर सकते हैं तो वे अवश्य हमारा भला करेगे और ऐसे सकटो को हमारे ऊपर आने नही देगे । फिर भी यह निविवाद है कि सकट हमारे ऊपर आ ही जाते है । कभी-कभी हमे इन्हें जीतने में सफलता मिलती है और कभी-कभी असफलता भी । और अन्त मे हम काल कवलित हो हो जाते है | लाख विनती करने पर भी जब हमारी हानि हो जाती है तब किसी के सामने सहायतार्थ हाथ पसारने से क्या लाभ ? मानते हैं कि विवश हालत मे क्षणिक सान्तवना के लिए हम ऐसा कर बैठते हैं, परन्तु इस पर भी गहराई से विचार करना जरूरी है ।
सकट से हम घबडा अवश्य जाते हैं पर ऐसे समय मे भी यदि हमारा दृष्टिकोण सही हो तो हम उसका सामना आसानी से कर सकते है । हमें समझना चाहिए कि नमस्कार नमस्कार में कितना अंतर होता है । रास्ते चलती एक अनजान युवती को यदि नमस्कार करें तो वह तुरन्त समझ जाती है कि उस नमस्कार के पीछे कौन-सा भाव छिपा हुआ है । शायद वह उस नमस्कार से बुरी तरह चिढ सकती है । न की सहायता के लिए प्रार्थना के बाद दूसरे ही दिन कही मिलने पर उसी सेठ को यदि नमस्कार करें तो वह समझ जाता है कि किस आशय से उसे नमस्कार किया जा रहा है । अपने देश के स्वतंत्रता सग्राम में शहीद हुए वीर की मृतक देह को किये जाने वाले नमस्कार मे कौन-सा भाव भरा है, वह किसी से छिपा थोडे ही है । इसी तरह परम त्यागी, तपस्वी मुनिराज को जो नमस्कार किया जाता है, वह तो विशेष होता ही है ।
अपने ऊपर ही इसे घटाकर देखा जाये । एक पडोसी बिना किसी स्वार्थ के आपको प्रणाम करता है और कष्टके समय मे भी सहायता भागना तो दूर रहा आपके प्रस्ताव पर भी सहायता स्वीकार करना नही चाहता या वडी हिचकिचाहट से स्वीकार करता है । पर एक दूसरा पडोसी उससे भी अधिक विनम्र भाव से नमस्कार करता हुआ कुछ न कुछ सहायता के लिए प्रार्थना करता ही रहता है
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