________________
गये तो रात-दिन परमात्मा का स्मरण करते हुए प्रार्थना करते है - "हे भगवन् हमारी सहायता कीजिये और हमें ऐसे सकट से उवारिये ।" इतने पर भी जव कुछ नही होता और काम बिगड जाता है तो हमारा दिल टूट जाता है । परमात्मा के प्रति हमारे दिल मे अश्रद्धा पैदा हो जाती है और हम नास्तिक बन जाते है । भाग्य से नास्तिक न भी बनें तो भी हममें अन्य दोप उत्पन्न हो जाते है और हम अकर्मण्य बन जाते है । संकट के समय विश्वास के आधार पर हम अपने पुरुषार्थ को ही छोड़ बैठते है । सोचते है -- “ आज नही तो कल वे ही उवारेंगे, वे ही सभालेंगे", फल यह होता है कि हम अधिक दीन-हीन होते जाते है । अत यह मान्यता अत्यन्त अहितकर लगती है ।
यही कारण है कि परम पिता परमात्मा की पूजा में हम पूर्ण न होने वाली किसी भी स्वार्थ पूर्ति की इच्छा नही करते । केवल उनके शुद्ध गुणो का प्रसन्नता से आदर करने का भाव रखते हैं और वह भी इसलिए कि इस तरह के प्रयत्न से हमारी आत्मा मे भी ऐसे गुण, जो दबे पडे है, सरलता पूर्वक शीघ्र विकसित हो जावें । ठीक वैसे ही- जैसे कवि, गवैया या खिलाडी आदि की कलात्मक कृतियो को देख कर हमारे में भी वही कला उभर आती है । अप्रत्यक्ष रूप में यह अवलम्ब क्या महत्व रखता है, उसके मूल्य का बोच, चिन्तन करने पर ही होता है। एक बिल्कुल सहायता नही करता । दूसरा सिर्फ अपने कलात्मक ढग के मनन ही मनन से चाहे वह देख कर हो, चिन्तन कर हो या पढ कर हो, बेहद लाभान्वित हो जाता है । महा भाग्यशाली एकलव्य ने गुरु द्रोण में श्रद्धा स्थापित कर, सिर्फ उनकी मूर्ति के सहारे ही, अपनी प्रतिभा से कैसा अपूर्व लाभ उठाया था, महा-भारत यह आज भी हमें मुक्त कठ से बतला रहा है ।
,
परमात्मा की पूजा में अपने ही लिए और वह भी अपने आप से ही लाभ उठाने के सिवाय, न हम किसी को राजी करना है, न कुछ मागना है । यदि स्वार्थ ही को हम 'मन से कार्य करने की रुचि' का कारण मान ले तो 'शुद्ध गुणो के विकास' का स्वार्थ तो हम यहाँ भी स्थापित कर सकते है और यह अच्छी तरह देख सकते है कि इस तरह के प्रयत्न से हमारे इस शुद्ध स्वार्थ की पूर्ति कम या ज्यादा, जल्दी या देर से अवश्य होती है या नही ? चूकि परमात्मा में गुणो की किसी प्रकार की कमी नही रहने और भविष्य में भी किसी प्रकार की न्यूनता उत्पन्न होने की गुजा
१६२