________________
कोई भी व्यक्ति अध्यात्मवाद की तरफ झुक नही सकता हालाकि यह पूर्ण रूपेण उसी से सम्बन्धित विषय है । ससार की सारी जिम्मेवारी को समेट कर, ससार के कार्यो से विमुक्त हो, अध्यात्म मार्ग ग्रहण भी कर ले तब भी उसे समाज पर भार वन कर जीने का अधिकार नही है हर समय उसमे अपना कायोत्सर्ग करने का आत्मवल जरूर होना चाहिए । समाज की सहायता, वह तभी ले सकता है जब समाज स्वेच्छा से सहायता देने को राजी हो । असल में यह पवित्र सहायता भी वह मुफ्त ग्रहण करना नही चाहता ।
यदि मैं किसी प्रकार से समाज पर भार का कारण न बनू श्रीर उल्टे समाज को लाभ पहुँचाता हुआ समाज की सेवा करू तो क्या कोई मेरे ऐसे रास्ते को भी गलत समझेगा ? क्या फिर भी ससार मे मेरा जीना किसी को अखरेगा ? फिर दूसरे कौन-से चार चाँद लगा लेते है
?
आप ईश्वर न मानें, स्वर्ग न मानें, नरक न माने, परलोक न मानें, मोक्ष न माने और धर्म- पाप आदि भी न माने तो कोई बात नही । हम भी इसके लिए आप पर दबाव नही दे सकते क्योकि हमारे पास भी ऐसे साधन नही है जिससे प्रत्यक्ष इन सब के सम्वन्ध में कुछ सिद्ध करके दिखाया जा सके। हमारी मान्यता भी मान लेने तक ही सीमित है । पर आप यह तो मानते हैं- "आप का कुछ अस्तित्व है । अन्य छोटे-मोटे सुखी, दुखी प्राणी आपके साथ इसी धरती पर है । कलह, स्वजन के निधन या रोगादिक अन्य कारणो से मन को ठेस लगती है; और आपस मे प्रेम, शान्ति और सहयोग रहने से मन में प्रसन्नता रहती है ।" आपसे एक ही प्रश्न पूछना है, "आप इस तरह की ठेस को पसन्द करते हैं या मन की प्रसन्नता को ?" निःसकोच कहा जा सकता है कि आप भी मन की प्रसन्नता ही चाहते है | अब खूब ठडे दिल से सोच कर हमे ऐसा उपाय बतला दें जिससे हममे कलह न हो और खूब प्रेम रहे । यदि इतना बतला देंगे तो हमे आपको गुरु मानने में कोई आपत्ति नही ।
जो भी उपाय आप वतलायेगे, आप आश्चर्य करेगे' कि उनमें और हमारे धार्मिक आचरणो मे कुछ भी अन्तर नही है । हम इन्ही उपायो को 'धर्म' के नाम से पुकारते है । आपको धर्म के नाम से यदि चिढ़ है तो आपको उनके लिए एक कोई नया नाम और गढना होग । जैसे कोई इन्हें 'नियम' कहते हैं, कोई 'कानून'
१५०