Book Title: Pooja ka Uttam Adarsh
Author(s): Panmal Kothari
Publisher: Sumermal Kothari

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Page 88
________________ मन की विचित्र गति को देख कर हम दग रह जाते है । कभी - २ उसके हाव-भाव से हमे ऐसा लगता है कि अव यह बिल्कुल सीधा हो गया है और कही नही भागंगा । फिर उसी मन को ऐसा सपाटा भरते देखते हैं कि हाथ ही नही आता A मन अपने ही वग में न रहे इससे ज्यादा और क्या हमारी कमजोरी हो सकती है ? हमे यह समझ कर भी हिम्मत नही हारनी चाहिए कि जब हम से भी अधिक गक्तिगाली पुरुषो को अथक परिश्रम करने पर भी पूरी सफलता जल्दी से नही मिलती तो हम इतनी जल्दी सफलता की आशा कैसे करते है हालांकि यह कोई राजन का क्यू ( कतार ) नही है कि आगे वाले को मिलने पर ही पीछे वाले की बारी आयेगी । मन की कमजोरी को मिटा डालना अति दुष्कर कार्य है । ही उपाय है कि यह जब - २ गिरे इसे ऊंचा उठाने की चेष्टा रखें । हमें सीखनी पड़ती है जो एक शतरज के खेल के समान है । गतरज के खेल की चाले सीख लेने के वाद भी चतुर खिलाड़ी हम तभी वन सकते है जव बार-बार अभ्यास करते रहे । चतुर खिलाड़ियो के खेल को देख कर भी हम अच्छे खिलाडी वन सकते हैं । यहाँ भी हमे पक्का खिलाड़ी बनना है । हमें अपने मन को वश में रखने का खेल सीखना है । अन्याय की बात छोडिये, जरा-सी भूल के लिए हमें क्रोव आ जाता है। मामूली लोभ में आकर दूसरे का अनिष्ट कर बैठते हैं । साठ-२ वर्ष तपस्या मे तपे वडे - २ मुनिराज तक के मन का कर्मसंयोग से पतन हो जाता है । फिर गृहस्थी एव नवयुवको के सम्बन्ध मे क्या कहा जाय ? उनका मन तो सब तरह का ऐशो आराम और सुख-सुविधा चाहता ही है । ऐसे समय इतने चंचल मन को वश में रखना हँसी खेल नही । इसमें बहुत अधिक विवेक और परिश्रम की आवश्यकता है । इसलिये ऐसे चचल मन को वग मे रखने के लिए महापुरुषो ने अनेक प्रकार के अवलम्वन बताये है । यह कार्य शायद सबसे अधिक कठिन है । श्रम जीवन पर्यन्त निरंतर चालू रखना होगा । इसमें मन को जरा भी ढीला नही छोड़ सकते । सफलता हमारे निरतर अभ्यास पर ही निर्भर है । ऐसे अभ्यास को हम "धार्मिक आचरण" के नाम से पुकारते हैं । इसलिए हमें अपना अथक परि -- १४८ इसका एक यह चेप्टा

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