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यदि कोई रूपवान स्त्री को देखकर, विचलित हो जाने वाले मन को बचाने में अपने को सव तरह से असमर्थ पाकर, अपने बचाव के लिए अपनी आँखें ही फोड ले तो हो सकता है इस उपाय को उसके अपने तक सीमित होने के कारण या दूसरो के साथ अनुचित व्यवहार नहीं होने के कारण या पहले उपाय की अपेक्षा अधिक लाभप्रद होने के कारण, कुछ अच्छा मान ले पर यह उपाय भी पूर्ण उचित उपाय नहीं कहा जा सकता। क्योकि एक बुराई को रोकने में उसे प्राप्त होने वाली बहुत सी अच्छाइयो से भी हाथ धोना पड़ रहा है। तव उचित उपाय क्या हो सकता है ? इसका एक मात्र उत्तर हे-"हमारे मन पर हमारा नियत्रण" । ___ इसलिए कारणो को नष्ट करने के उपाय को पूर्ण विश्वसनीय नही कहा जा सकता। ऐसे उपाय को काम में लेने के बाद भी क्या हम कह सकते है कि रूसवाले राग और द्वेप से रहित हो गये? क्या आज वे सब समान हैं ? यह तो धधकती आग पर थोडे समय के लिए एक परत मात्र है । ज्योही परत हटी कि विकराल अग्नि मुंह खोले हमे भस्मीभूत करने को तैयार मिलती है। जब हम जन्म से ही असमानता को साथ लेकर आते है फिर यह असमानता तो रहेगी। कोई लम्बा होगा, कोई मोटा होगा, कोई अधिक बुद्धि वाला होगा और कोई अधिक ताकत वाला होगा। यदि कहे-"जिस असमानता को नहीं मिटा सकते उसकी बात क्यो करे, जिसको मिटा सकते है उसे क्यो रहने दे ? विशेप कर हमारा झगडा, भौतिक पदार्थों के लिए ही होता है इसलिए इतनी समानता को ही बनाये रक्खे तो क्या बुरा है ?" पर यह इस अस्थिर जीवन में सम्भव नही दीखता । कइयो ने यहाँ तक सोचा और किया__"सव भाई एक कुटुम्ब की तरह रहें, काम करें और अपनी आवश्यकतानुसार पदार्थ लेते जाँय, और आनन्द से जीवन निर्वाह करते चले। न सग्रह का भाव रक्खें न एक दूसरे को नीचा दिखाने का।"
कितना सुन्दर आदर्श है ? पर यहाँ भी अनैतिकता और अकर्मण्यता पनप आती है। बहुत से सोच लेते हैं-"कडी मेहनत की क्या आवश्यकता है ? जितना चाहिए उतना तो कम परिश्रम से ही मिल जायेगा, फिर आपाधापी क्यो ? यानी इस तरह देखा-देखी स्वार्थ-परायणता और अकर्मण्यता धीरे-२ बढने लगती है और सारा ढाँचा विगड कर अवनति शुरू हो जाती है।
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