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"स्वकृत, जैसे कार्य न करना, अधिक खर्च करना, कुव्यसनो में पडना, नियम पूर्वक न रहना, आदि ।
"समाजकृत, जैसे-चोरी हो जाना, युद्ध और कलह का हो जाना,उधार डूब जाना, आदि। ___ "देवकृत, जैसे-आग, भूकम्प, अति वृष्टि, अल्प वृष्टि, रोग, बुढापा, स्वजन की मृत्यु आदि का होना एव कार्य करने की इच्छा और शक्ति के होते हुए भी कार्य का न मिलना।
"पहले कारण के अवसर पर यदि कोई मेरी सहायता करता है तब मै तो दोपी हूँ ही, वह भी दोपी ठहरता है। ऐसी स्थिति मे किसी को मुझसे बात भी नही करनी चाहिए। चाहे मै कल मरता होऊँ तो आज ही क्यो न मर जाऊँ। मेरे मर जाने से समाज तो स्वस्थ रहेगा। दूसरे और तीसरे कारण के अवसर पर समाज से सहायता ली जा सकती है और समाज दे भी सकता है।
"दूसरा कारण, समाज की अस्वस्थता का लक्षण है जो समाज के स्वस्थ होने से अपने आप ही मिट जायगा पर तीसरा कारण जो 'देव-कृत' है जिसका सामना करने के लिए हम सब को मिलकर ही रहना चाहिए। हमारी सारी समाज रचना का उद्देश्य भी यही है।
"पहले कारण का पूरा जिम्मेवार मै हूँ। यदि मै इसका उचित सुधार नही करता हूँ तो मेरे लिए वडी शर्म की बात है और इसका फल मुझे ही भोगना चाहिए। दूसरे दो कारणो मे भी मुझे उचित सावधानी बरतनी चाहिए। समाज को मेरी सहायता करनी चाहिए, समाज पर ऐसा दवाव नही डालाजा सकता। यह तो समाज की स्वेच्छा पर निर्भर करता है। ___ "मेरे घर में आग लग गई, मेरा घर वाढ मे वह गया। इसमें समाज का क्या दोप? मुझे रोग हो गया या मेरा एक स्वजन चल बसा, इसमें समाज क्या करेगा ? अधिक से अधिक समाज मेरे साथ सहानुभूति प्रगट कर सकता है। रोग की पीडा मुझे ही भुगतनी होगी। मृतक स्वजन का वियोग मुझे ही झेलना पडेगा। समाज न तो रोग की पीडा बटा सकता है, न मृतक को ही लौटा सकता है। समाज द्रव्य वस्तुप्रो की पूर्ति चाहे कर भी दे पर आन्तरिक यत्रणाये कोई नही मिटा सकता। इनका सामना तो मुझको अपने आत्म-बल से ही करना
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