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कइयो के मन में शका उत्पन्न हो सकती है कि इस तरह का आचरण अपनाने से हमें ससार के हर कार्य में अरुचि उत्पन्न हो जायेगी। हमारा जीवन नीरस
और अकर्मण्य बन जायेगा। इसी चिन्ता में, 'क्या जाने कव मर जाऊँगा, या मुझको रहना नही है हमारा दिल पहले ही बैठ जायेगा और किसी भी कार्य को करने का मन नही होगा और हम अमूल्य जीवन को ही निकम्मा बना बैठेंगे । फिर इस तरह के पुरुषार्थहीन जीवन से क्या लाभ ?
भविष्य मे हमारा क्या होगा यह कोई नही कह सकता। इस प्रकार का चिन्तन हमें अकर्मण्य बना देगा, यह निरा भ्रम है। सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिये ही हम भाग-दौड करते है। उसी के लिए हम कुछ करना चाहते है। यदि विना ऐसे द्रव्यो के उससे भी अच्छा सुख मिल जाय, तो आपको क्या एतराज है ? आप कहेंगे-"असम्भव", मैं कहूँगा-"सम्भव"। चूकि इस वहस की लम्बाई का अत नही है इसलिए थोडे मे ही विचारें कि रेशम छोड कर खादी धारण करने वाले काग्रेसजनो को रेशम छोडने का क्या कोई दुख है ? यदि कुछ नही तो जो रेशम ही मे, सुख समझ बैठा है उसको कैसे समझा कि यह असली सुख नही है। वडप्पन दिखाने के सिवाय और आप भी रेशम मे क्या सुख समझते है ? समझ का फरक इतना ही है कि कई सुख ऐशो आराम मे मानते हैं और ज्ञानी ऐशो आराम से हटने को मानते है। धर्म हमें अकर्मण्य नही वनाता बल्कि एक क्षण भी व्यर्थ न खोने की चेतावनी देता है। वीतराग फरमाते है--"समय गोयम ! मा पमाइये"- गौतम | क्षण भर भी प्रमाद न कर ।
धर्म सही दिशा को समझा कर हमें लक्ष्य की तरफ बढने मे बडी सहायता पहुंचाता है। यदि वह हमारे जीवन को न्यायी, स्वस्थ, सवल, स्वावलम्बी और चिन्ता रहित बना दे तो इससे अधिक और मनुष्य के लिए क्या अच्छा हो सकता है ? भेषधारी ढोगी साधुओ की भिक्षावृत्ति देख कर ही हमें धर्म का मूल्याकन नही कर लेना चाहिए। धर्म की गहराई बहुत ही अधिक है। इसे सहज ही मापना सभव नही है।
जैनियो ने अध्यात्मवाद को धर्म का शिखर स्वरूप अवश्य माना है पर अन्य सभी क्षेत्रो मे अपनी जिम्मेवारी को पूरी तरह समझाने वाला "धर्म" ही है, यह भी पूर्णतया स्वीकार किया है। माता-पिता और बाल-बच्चो की मरजी के विना
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