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किया जा चुका है। मुनिराज अणुव्रत न अपनावें या सिद्ध भगवान मनुष्य-भव की इच्छा न करे तो भी अणुव्रत या मनुष्य-भव बुरा नहीं हो जाता। मुनि अपनी आत्म रमणता में लीन हो जाते हैं। अपने ज्ञान, ध्यान, और स्वाध्याय मे तल्लीन रहते है । ससार की सारी सुध-बुध ही भूल जाते हैं। यहाँ तक कि वे अपने शरीर कोही भूल जाते है। उनकी हमारी क्या बराबरी? उन्होने इस सहयोग को बुरा समझ कर छोडा है या आज भी बुरा समझ रहे है, ऐसी बात विल्कुल नही है। वे तो आज भी प्राणी मात्र का हित चाहते है। सब के जीवन में शान्ति रहे, ऐसा चाहते है। ऊँचे पहुँचने के कारण या मर्यादा निभाने के लिए हमारे साथ ऐसा सहयोग नहीं कर रहे है तो क्या हुआ? इससे भी ऊँचे दर्जे का सहयोग रख कर उससे भी अनेक गुणा लाभ वे हमें पहुंचा रहे है। राजा अपने सिहासन पर स्थित रह कर हजारो सुभटो द्वारा जो हमारी रक्षा करते है वह उन्ही की कृपा मानी जाती है । इसी तरह उपदेश द्वारा अनेक प्राणियो में हमे 'न मारने का और 'बचाने का भाव भर कर सन्मार्ग मे प्रवृत करते हुए हमारे लिए हजारो हाथो को वे सहायक वनने में समर्थ बना रहे है। उपदेश देकर कितना पथ प्रदर्शन कर रहे हैं, कितनी ठोकरो से वचा रहे हैं। भला फिर भी कोई दुख और असतोष की बात है ? इनसे भी ऊँचे, महान् ऊँचे और सबसे ऊँचे सिद्ध भगवान इनके जैसा उपदेश देने का सहयोग भी आज हमारे साथ नही रख रहे है। तो क्या मुनिराजो के उपदेश के सहयोग को हम इसलिए बुरा मान ले कि सिद्ध भगवान तो ऐसा व्यवहार नही अपनाते है ? क्या 'उपदेश देना किसी मनि का बुरा माना जायेगा? उसी तरह हमारा आपस का सहयोग भी बुरा नहीं माना जा सकता चाहे मुनि उसे न भी अपनावे ।
उनके पहले के जीवन को ही देखे। इस व्यवहार का कितना जबरदस्त अनुकरण उन्होने किया था। वे इसे छोडकर नही, अपितु अपना कर ही ऊंचे पहुँचे हैं।
गौतम स्वामी के व्यवहार को ही लीजिए जब तक परमत्मा में अनुराग बना रहा केवल ज्ञान प्राप्त नही कर सके। पर इसका मतलब यह नहीं कि गुरु से अनुराग रखना बुरा है, और इसलिए हमें गुरु की वन्दना, भक्ति छोड देनी चाहिए। गुरु की भक्ति छोड, क्या यह माने कि मोह जितना हल्का हुआ उतना ही अच्छा है?