________________
प्रयत्न मे प्राणो से भी हाथ धोना पडे, तो क्या हुआ? अन्त में एक दिन सवको मरना ही है। आप अनुभव करेंगे कि जहाँ उस मरने में भी अनत आनन्द है, वहाँ लड-झगड़कर जीना भी महान् दुःखपूर्ण है।
क्या यह कहा जा सकता है कि पेट का प्रश्न यदि हमारे सामने नहीं होता तो हम विकृति के शिकार नहीं होते ? सम्भव है उस समय हमे समाज के साथ इतना सम्पर्क नही रखना पडता । हमें ऐसा अनुभव होता है कि हम वडे सुखी होते। न किसी को नौकरी करनी पडती, न किसी के आश्रित होना पडता। शान्तिपूर्ण एकान्त स्थान में जाकर अपने कुटम्ब के साथ या अकेले ही आनन्द मे दिन व्यतीत करते । निन्यानवे प्रतिशत झझटें टल जाती। किन्तु दूर के ढोल ही सुहावने लगते हैं। जब तक जन्म, मरण, रोग, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि हमारे सामने मौजूद है तब तक छाती ठोककर नहीं कहा जा सकता कि हम सुखी हो ही जाते। पाकिस्तानियो के समर्थको ने सोचा था कि हिन्दुओ को मार भगाने के बाद वेबडे सुखी हो जायेगे पर उनको ऐसा सुख हुआ कि मार्शल-ला की लौ मे जलना पडा। ऐसे-२ करोडपति जिनके खाने-पीने आदि की कोई समस्या ही नही, विचारे पहले से कही अधिक दुखी है। न तो उन्हें पूरी नीद आती है और न उनके मन में आगे जैसी शान्ति ही है। भेषधारी जन सापुत्रो को ही देखिये-उन्हें न जुटाना पडता है, न पकाना। भोजन तो उन्हें जितना चाहिए, गृहस्थो के घर खुले है। फिर भी उनका आपसी मन-मुटाव छिपा थोडे ही है।
विचार कर देखा जाय तो पेट का प्रश्न विकृति-उत्पन्न होने का मुख्य कारण नहीं है। पेट भरने का भार, प्रकृति ने पहले ही से अपने ऊपर ले रखा है। बच्चे की खुराक उसके जन्म लेने के पहले ही उसकी मां के पेट में तैयार हो जाती है। विना परिश्रम के ही जब बच्चे की खुराक वच्चे को मिल जाती है तो कोई कारण नहीं दीखता कि हमे परिश्रम करने पर भी अपनी खुराक नहीं मिलेगी। अबोल पशु-पक्षी भी अपना पेट भर लेते है। फिर मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी के लिए क्या कमी रह सकती है ? वास्तव मे विकृति का कारण 'भूख' नहीं है । उल्टे 'विकृति' ही जिसके कारणो पर हम आगे विचार करेंगे, इस भूख की जननी है। वडे-२ युद्धो को लड कर लाखो-२ टन खाद्य-पदार्थों को नष्ट कर डालना, भयंकर वमो के प्रयोग से जमीन को खेती के लायक ही न रहने देना और लोगो
१२४