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के परिश्रम को जीवनोपयोगी पदार्थों के संग्रह से हटा कर अन्य तरफ झुका देना आदि ऐसे-२ कार्य, भूख की जननी नही तो और क्या है ? जीवनदायिनी औपधि न बना कर आज हम मनुष्य के प्राण लेने वाली बन्दूक की गोली तैयार करते है। मकट में सहयोग रखने की जगह तुच्छ स्वार्थ के लिए प्राण लेने की चेप्टा करते हैं। तव हमारा भला कैसे हो सकता है ?
विकृति चाहे पेट के प्रश्न को लेकर उत्पन्न हुई हो अथवा अन्य कारणो से, उसका उत्पन्न होना ही भयावह है। यही हमारी आशान्ति का मुख्य कारण है। विकृति से विकृति ही बढती है और उस की ज्वाला में हम सभी झुलसते रहते है।
जब सवकी समस्या एक है और समस्या का सच्चा हल सवका प्रेम पूर्वक सम्मिलित मप्रयत्न ही है फिर हमारे कुछ भाई या हम सभी विपरीत दिशा में क्यो चले जाते है ? क्यो विकृत हो जाते है ? यदि भूख इस विकृति का असली कारण नहीं है, तो इसका सही कारण क्या है ?
"हम क्यो विकृत हो जाते है ? हम आपस मे क्यो टकरा जाते है ? क्यो एक दूसरे का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते है ?" इनका एकमात्र उत्तर है --"हमारी अज्ञानता, हमारे विपयो और कपायो का जोर।" विपय सुखो में पागल हम उसी तरह अनियत्रित हो जाते हैं जिस तरह मनुष्य, मनुष्य होते हए भी नशे में अनियत्रित हो जाया करता है। इसी कारण हम अपने मन को वश में नहीं रख सकते और हमे या समाज को हानि हो या लाभ विना-विचारे हम कार्य करने लगते हैं।
युद्ध करने वालो ने क्या सोच कर युद्ध किया ? यही न कि वे और अधिक आराम में रहेंगे। वे न रहे, तो भी कम-से-कम उनकी आने वाली पीढी तो मौज करेगी। भारत को अधीन करने के लिए मरने वाले अंग्रेजो ने भी यही सोचा होगा कि कम-से-कम उनकी अगली पीढी तो बड़े मौज से रहेगी। पर आज उनकी पीढी कैसी मौज ले रही है ? उनकी धारणा झूठी सिद्ध हुई या नहीं? यही हालत घोखा, चोरी इत्यादि करने वालो की है। ऐसा सोच कर अनर्थ करना कितनी भयकर भूल है, यह इतिहास से जाना जा सकता है।
भूख के सताये विचारे भीख मागने लगते है या मर मिटते है पर अन्याय नही
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