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तो भविष्य के लिए 'शान्ति' की कन अपने हाथो से खोदते है। क्या विचित्र दशा है हमारी ? इघर देखते हैं तो कुआं और उधर खाई। आज हम अपनी रक्षा की दृष्टि से ही, अस्त्रो-शस्त्रो से लैश हो जायेंगे। कल आपस में ही मन मुटाव हो गया तो? निश्चय ही ये अस्त्र-गस्त्र हमारे ही सर तोड़ने वाले होगे। मनुष्य होकर मनुष्य को समझा नहीं सकते, मनुष्य की तरह रह नहीं सकते, यही हमारी महान् विडम्वना है।
शत्रु यानी अन्याय का सामना करना हो तो आत्म-बल से सामना करना चाहिए, तव जीत होती है । अन्यायियो का संगठन टिक नहीं सकता। अन्या येयो में प्रति नहीं निभ सकती। यह तो वन्ध्या पुत्र को खेलाने जैसी वात है। मान लें कि कुछ देर के लिए उन्हें थोड़ी सफलता मिल गई तो भी उनका अन्त होने में देर नहीं लगती। भोले लोग जो उनका साथ दे बैठते है उन्ही की हरकतों से घबड़ाकर वैसे ही उनकी छाती पर चढ वैठते हैं जैसे कई देशो मे रातों रात फौजी शासन वने है। उनका अन्त सुवह तक का भी इन्तजार नहीं करता। , आप ही सोचिये, उनका वहुमत कैसे होगा और कैसे टिकेगा? संसार का बहुमत अपना अहित नहीं चाहता। जव सव अपना हित चाहते हैं तब हमारे बहुमत में सन्देह ही कौन-सा है ? निश्चय ही बहुमत हमारा होगा और सारा संसार हमारे पीछे होगा। हमारे संगठन में वह ताकत होगी कि हमारे अन्यायी के अन्याय का ही खात्मा हो जायेगा।
क्या हम अपने पूज्य वापू को भूल गये ? क्या उनके हाथ में तलवार या वन्दुक थी ? जिनका उन्होने सामना किया, क्या उनके हाथ में वन्दूक और तोप नही थी? फिर ऐसे शक्तिगालियो के हाथ से अपनी वस्तु उन्होने कैसे प्राप्त कर ली? करोड़ो के दिलो को उन्होने कैसे जीत लिया? ससार उनके पीछे कैसे हो गया ? मृत्यु पर्यन्त किस प्रकार न्याय पर डटे रहे ? वे ऐसी नौरभ छोड गये, कि आज भी संसार का कोना-२ सुवासित हो रहा है। न्याय पर डटे रहने से किस प्रकार सफलता मिलती है उसका यह एक जीता जागता ज्वलत उदाहरण है। हमें समझना चाहिए कि न्यायी, एक मनुष्य भी, क्या कर सकता है और उसमें कितनी अपूर्व गक्ति होती है ? फिर हम अपने आप को कमजोर महसूस क्यो करे और क्यों न्याय पर डटे रहने से धवड़ावें।