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ऐसा निर्दयी होना कभी उचित नही । ससार की सम्पूर्ण प्रवृतियां अपनाते हुए जी जान से अपना बचाव करते हुए, और बचाव के लिए पीरो से सहारा लेते हुए भी साथियो को बचाने में पाप वताना क्या उचित है ? क्या यह ऋण चुकाने से जी चुराना नहीं है ? क्या यह परिश्रम से बचना नही है ? क्या यह घोर स्वार्यवृति नहीं है ? कुटिल कपट नहीं है । पर क्या किया जाय, यह उस भोले जीव का दोप नही। यह दोप उन महान् उपदेशको का है जिन्होंने उस मे उल्टा भाव भर दिया है। इसी कारण स्वार्थ और निर्दयता की महा दुर्गन्ध उसके अन्तःकरण में व्याप्त हो गई है। उसका हृदय भयानक कठोर बन गया है। वह अपनी आवश्यकता को ही भूल बैठा है। दूसरे को बचाना तो समय पर अपने आपके 'बचाव' का हो वचाव है।
यदि कहा जाय-"सव तरह से समर्थ, सर्वनानी केवली भगवान, या सत मुनिराज भी ऐमा सयोग अन्य जीवो के साथ नही अपनाते है। फिर उनको तो हम वरा नही कहते ? उनमे असतोप क्यो नही उत्पन्न होता ? उल्टे वे तो दिन-२ ऊँचे ही जाते हैं। इस व्यवहार से हटे है तभी ऊँचे पहुँचे है, पहँच रहे हैं। फिर कोई हमें भी ऐसे व्यवहार को न अपनाने का उपदेश दे, तो उसे बुरा क्यों मानें ?" ___ मानते हैं केवली भगवान तो मरते, मारते, वचते, बचाते, सभी कुछ देखते है, सभी कुछ जानते हैं और इतना ही क्यो वे तो जीव के कर्मों के सभी खेलो को भी जानते हैं। फिर भी, 'परमात्मा का जीवो को न बचाने का जो प्रश्न उठाते हैं उन्हें विचारना चाहिए कि मारे जाने वाले प्राणियो को बचाना उचित न समझ न बचाया तो कोई बात नही पर मारनेवाले प्राणियो को ज्ञान द्वारा समझाकर, हिंसा तो छुड़वाते। वह तो धर्म का ही कार्य होता। समझ रखने वाले हमारे सुयोग्य भाई कह सकते है कि परमात्मा ने ऐसे प्रत्येक हिंसक के पास पहुँचने की कोशिश की, समझाने गये ? तव समझाने के जिस व्यवहार को वे अपनाये बैठे है वह भी नहीं टिकता। यदि यह कहे कि वे बहुतो को समझा गये है तो यह भी सही है कि उससे भी अनेक गुणा अधिक वे वचा भी गये है। एक को समझाना लाखो को बचाने के वरावर होता है।
इस विषय का थोडा विवेचन "मुनिराज द्रव्य-पूजा क्यो नही अपनाते" में
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