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के सिर फोडने लगे तो मुनिराज उसे ऐसा करने देगे? मुनिराज उसे अलग नहीं हटायेंगे? क्या अपने पात्रे या सिर फुडवा लेंगे? उस समय यदि हम स्थानक मेंहो तो क्या उस बालक को ऐसा करने से नहीं रोकेंगे? रोकने की चेष्टा की तो, वतलाइये रोकने में और पत्थर छीनने में अन्तर क्या है ? रोकने पर भी न रुका तो पत्यर छीनेंगे या नहीं? छीनेंगे, तो पत्थर यहाँ भी हमारे हाथो में आयेगा। तो क्या यहां हमे पाप लगेगा ? ऐसा करना अनुचित होगा? यदि नही तो चिंटियो ने किमी का क्या विगाडा है ? थोडा समय निकाल उनको वचाने से, हम जैसे अनेक प्रमाद सेवन करने वालो की कौन सी तन्मयता या सिद्धता में बाधा आती है ? उल्टे ऐसे कार्यों में तो हमारा प्रमाद कुछ हल्का ही होगा। मन में कोमलता पैदा होगी। आत्मा में जीवो के प्रति दया उत्पन्न होगी और अनादि काल से जो जीवो को मारने की हमारी वुरी प्रवृत्ति है, वह हल्की ही पडेगी।
जिनके मन में जीव बचाने की भावना नहीं है या जो जीव वचे उसे अच्छा नही समझते, अव्रत का पोपण जान बुरा समझते है, वे जीव न मारने का उपदेश क्या खाक देंगे। वे तो उसके जीवन के मूल्य का मुख ने उच्चारण ही नहीं कर सकते। उमका तो प्रमगही नहीं ला सकते। उसके लिए कोई दलील ही नहीं दे सकते। काग! वे 'विपय पोपण, और प्रति-पालन से 'शरीर पोपण' के अन्तर को न समझ सके तो न सही पर कम-से-कम, 'प्रति-पालन' और 'प्राण-रक्षा' के अन्तर को तो समझते। जीव के अपने-२ क्षेत्र की आवश्यकता को तो समझते। 'प्राण-रक्षा' मे घवडाने की क्या बात है। किमी की 'प्राण-रक्षा करने से 'प्रति-पालन' की जिम्मेवारी थोडे ही आ जाती है ?
जीव न मारने का भाव किनी के उपदेश से, शीघ्र ही पनप आयेगा, यह सौदा इतना मस्ता नहीं है। जीव न मारने का भाव प्राणी में उपदेश से नही स्वयमेव तव उत्पन्न होता है जब उसका मन, जीवो के प्रति दया भाव से, उपकार भाव से छलाछल भर जाय। दया भाव की वृद्धि जीव में तवपैदा होती है जब वह पहले उसकी प्रतिपालना करता है और उसको मृत्यु से बचाता है यानी प्राण-रक्षा करता है। साथ ही उसके जीवन के मूल्य को यानी इस तरह की असगत मृत्यु से उत्पन्न होती हुई अनन्त वेदना को और उससे बघते महान् कर्मो को समझ लेता है। इस व्यवहार से उसके जी में जीवो के प्रति अनन्त दया और करुणा की भावना पैदा होती है और