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तब वह चाहता है कि यह वेदना और हानि किसी प्राणी को न पहुँचे, सभी सुख पूर्वक जीवे । ऐसी स्थिति मे वह जीव नही मारेगा अर्थात् जीव न मारने की भावना उसमें उत्पन्त होगी । इसलिए जीव की 'प्राण-रक्षा' करना और उसका 'प्रति - पालन' करना प्रथम उसके लिए अनिवार्य हैं । फिर बचाने मे या प्रतिपालन मे पाप वतला कर, इस व्यवहार से उसे दूर हटाते हुए या उसमें अरुचि उत्पन्न करते हुए यह आशा रखना कि हम उसमें अहिंसा का भाव भर देंगे, दुराशा मात्र है, असम्भव है । ऐसे उपदेश से तो कमजोर प्राणी अधिक निर्दयी और हिंसक ही बनेगे । ऐसे उपदेश के प्रभाव से आज वह यह समझ बैठा है-
" मरता है तो मैं क्या करू ? बचाने की जिम्मेवारी मेरी थोडी ही है । मैं क्यो ऐसे पाप करूँ ? मे थोडे ही मार रहा हूँ । जो कुछ हो रहा है उसका अपना भाग्य है । इसके लिए में दोषी थोडे ही हूँ। मै अपना काम करू या इसको बचाता फिरू । में किस-२ को बचाऊँ, इत्यादि - २ ।" न बचाये जाने पर, मरने वाला प्राणी अपना अवसर तो खोता ही है, साथ -२ अधिक कषाय और असतोष उत्पन्न होने के कारण भारी कर्मी भी बन जाता है । 'पाप समझने के कारण - बचाने की स्थिति में होने पर भी वह नही बचाता है । इस कारण उस न बचाने वाले पर अपने अतकाल मे उसे बडी झुंझलाहट पैदा हो जाती है । वह सोचता है
मुझे बचा । मेरा ऐसा विधर्मीपना क्यो
तेरे देव, गुरु सब झूठे
"अरे पापी ' अरे निर्दयी । तेरा हृदय क्या पत्थर का हो गया है ? तेरे में इतनी भी दया नही । मै तेरे लिए ऐसे अनेक पाप सह लूगा, तेरा सारा ऋण चुका दूंगा । कम से कम इस सकट में तो तो अवसर ही जा रहा है । किस की सीख में पड गया ? अपना रहा है ? तब तो तेरा धर्म महान् निकृष्ट है । हैं । क्षेत्र का सहयोगी होकर, सहयोग नही रखता ? भला इस सहयोग मे भी "कोई पाप है ? तब तेरा पथ बडी गलत दिशा में गया है । कल तेरे को भी किसी बचाने वाले की आवश्यकता पड सकती है। अरे, उस आवश्यकता को समझ कर ही मुझे बचा, मेरे प्राणो की रक्षा कर । क्या नही बचायेगा ? पाप ही समझता रहेगा ? मालूम पडता है- "पत्थर ही पत्थर" सुनते सुनते तेरा दिमाग ही पत्थर हो गया है ।"
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