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यह भी मान ले कि भगवान ने उस भूल को समझ ली थी और फिर उसके लिए दड भी ले लिया था, तो पूर्व शास्त्रकारो ने, जिनकी कृपा से आज हम शास्त्रो के अर्थ समझने में समर्थ हुए हैं, उसका स्पष्टीकरण क्यो नही किया। इतनी बड़ी घटना के लिए कुछ तो उन्हें भी अपनी तरफ से लिखना चाहिए था, अपनी राय ही देते। क्या वे भी आशय समझ नहीं पाये।
स्वामीजी श्री आगे-पीछे का आशय समझाते हैं, फर्क समझाते हैं और विपरीतता सिद्ध करते हैं पर भगवान की अन्य आज्ञाओ को भी तो मिलाते। क्या उनमे विपरीतता नहीं है ? __ मुनिराजो को अपनी-२ शक्ति के अनुसार व्यवहार अपना कर, कार्य करने की भिन्न-२ प्रकार की आज्ञाये तो है ही, एक ही मुनिराज को देश, काल, भाव समझकर, भिन्न प्रकार से व्यवहार अपना कर अनेक प्रकार की भिन्न-२ आज्ञाये भी तो है और कई-२ आज्ञायें तो एक दम एक दूसरी के विपरीत है । जैसे मुनिराज को चौमासे मे एक ही जगह चार महीने तक रहने की आज्ञा है पर उसी मुनिराज को मौका उपस्थित होने पर चौमासे में भी विहार कर जाने की आज्ञा है। वर्षा मे मुनिराज को बाहर न जाने की आज्ञा है पर उसी मुनिराज को अन्य कारण से बाहर जाने की भी आज्ञा है। ये सब विपरीत क्रियाए है या नहीं ? मुनिराज दोनोही प्रकार की आज्ञाओ को, समय समय पर आवश्यकतानुसार अपनाते है या नहीं ? एक तरफ-जीव हनने वाले को, परमात्मा मुनि ही नही मानते, दूसरी तरफ-वे स्वय साध्वीजी की प्राण रक्षा के लिये नदी उतरने, औषधि आदि लेने की आज्ञा फरमाते हैं। तो क्या ऐसी विपरीतता को देखकर कह दें कि मुनिराज चूकते हैं या केवली भगवान आज्ञा देने में चूक गये । जव विपरीत क्रियानो को अपनाते हुए भी मुनिराज चूके नही कहे जा सकते तो तीर्थकर भगवान को भी हम चूका क्यो कहें? वहाँ भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मे फरक आ गण होगा। तीर्थंकर भगवान ने कारण समझ कर ही कार्य किया होगा। जो कुछ किया, उन्होने ठीक ही किया। इसमें अश मात्र भी सन्देह नही। उनसे भूल कभी नही हो सकती, यह नितान्त सत्य है ।
आचार्य श्री भिक्षु स्वामी को यदि अपनी यह मान्यता ही बचानी थी कि 'जीव बचाने में पाप है तो वे भगवान को विना 'चूके' बतलाये ही वडे आराम