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और आसानी से बचा सकते थे। दुनिया यही तो कहती-'भगवान ने भी प्राणी के प्राण वचार्य, धर्म था तभी बचाये इसलिए प्राणी के प्राण वचाने में धर्म है।" यहाँ साफ-२ कह देते कि भगवान ने किसी प्राणी के प्राण वचाये,तो क्या,न बचाये, तो क्या ? लब्धी फोडी तो क्या ? उनकी और हमारी वरावरी कैसी ? क्या उनको शक्ति के बरावर हमारी गक्ति है । उन गक्तिगाली पुरुषो के व्यवहारो का अनुकरण करना हमारे जैने कमजोरो के लिए लागू नहीं होता। यदि ऐमा होता तो छोटे और बडे सर्व मुनिराज के लिए एक जैसी ही आनाये होती। वात तो यहाँ तक है कि गिप्य, गुरु की भी बराबरी नहीं कर सकता। वे महापुरुष थे, अपने लिए जैमा उचित समझा, उन्होने किया । हमे तो उनकी आज्ञा का पालन करना है। उनकी आजा ही हमारे लिए सिद्धान्त स्प है।
इन तरह स्वामीजी विना परमात्मा को चूका कहे ही अपनी मान्यता को वाल-२ वचा मरते थे पर उन्हें मतलव था समाज पर अपनी समझ का प्रभाव जमाने का। पर ऐमा प्रभाव जमा कि अपने महापुरुपो की भूल बतला कर, अपने हाथो अपने लिए ही घाटा मोल लिया।
जिन तीर्थकर भगवान को गुरु की भी आवश्यकता नहीं होती। जिनको विना गुरु के ही दीक्षा लेने का अधिकार है ऐसे तीर्थकर भगवान को, हम ही भल करने वाले घोपित कर दें, चके वतला दे तव तो समझ लीजिए हमने सारी नुटिया ही डुबो दी। एक जगह भूल करने वाले से किसी भी जगह भूल हो जाने की सम्भावना रह सकती है। फिर उन्हें किसी पूर्ण जिम्मेवारी का कार्य कैसे नोपा जा सकता है ? स्वामीजी श्री को समझाना चाहिए था कि विना गुरु के ही, ऐमे चूकने वाले छमस्यो को दीक्षा लेने जैनी अत्यन्त महत्व-पूर्ण पद्धति को स्त्रय संचालन करने का अधिकार क्यो मोपा गया?
यामीजी का इसमें क्या स्वार्थ सवा ? सिर्फ इतना ही कि उनके मानने वालो ने यह कह कर उनकी खूब प्रशना की कि "हमारे स्वामीजी ऐसे वैसे नही हैं, सब खरे है। किमी की रेख नही रखते, चाहे भगवान स्वय ही क्यो न हो।" कमाल | तव स्वामीजी तो 'कर्मों के कीट' ही मिद्ध हुए। कर्मों ने किसी को
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