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है, सिर दबाते है और वैयावच्च का खूब लाभ लेते है। यदि हम भी मुनिराज के हाथ पर दबावे और ऐसी ही वैयावच्च करे तो हमे लाभ होगा या नहीं? मुनिराज हमारी ऐसी वैयावच्च स्वीकार करेंगे या नहीं? जिस कार्य से मुनिराजो को लाभ हो रहा है हमे लाभ क्यो नहीं होगा? वात यह है कि हमे तो उल्टा यहाँ पाप होगा यदि हम ऐसी वैयावच्च करे। मुनिराज को भी पाप होगा यदि वे हमारे से ऐमी वैयावच्च स्वीकार करें। इससे अधिक और क्या स्पष्ट किया जा सकता है। ___ मुनिराज की और हमारी कोई वरावरी नही। यह काटा हमें अपने दिमाग से निकाल कर फेक देना चाहिए। बच्चे से पत्थर छीनने की जो बात पूछी जाती है इस सम्बन्ध में हमारा उत्तर है-"प्राय मुनिराजो को हमने ऐसे अवसर पर पत्थर छीनते देखे है।" हमारे और उनके पत्यर छीनने मे अन्तर इतना ही है कि हम द्रव्य से छीनते है और वे भाव से । उनकी दृष्टि पडते ही वे कहते है-"बच्चे का उपयोग रखिये।" व्याख्यान मे बच्चे जव शोर करते है या रोते है तो मुनिराज यही फरमाते है-"बच्चो का उपयोग रखिये।" खुले मुंह जब हम उनके सामने बोलते है तो वे फरमाते है-"जीवो की जयणा रक्खो" यानी वायुकाय के जीवो की विराधना न हो इसलिए "मुंह पर कपडा रखकर, बोलने का उपयोग रखने कोही" कहते है। यह उनकी भापा समिति है। हमारा ध्यान आकर्षित कर मुंह पर कपडा उन्होंने ही वववाया है। वे हममे पुस्तके छपवाते है, चिठ्ठियाँ लिखवाते है। ये सब क्या है ? एक नही, अनेक उपकार के कार्य हमसे मुनि करवाते है । तब बच्चे से पत्थर उन्होने ही छिनवाया है। पत्थर छीने जाने का श्रेय उन्ही को है। मान लीजिए, पास में कोई नहीं मिला और उनके ध्यान में आ गया कि बच्चा भूल कर रहा है तो कोमलता पूर्वक, जयणा सहित उसके हाथ से पत्थर लेकर एक तरफ रख दे, तो रख भी सकते है। वे इधर-उपर कोई वस्तु रसते नहीं, ऐसी वात नहीं है। वडे-२ पात्रे, गरियाँ आदि इधर-उधर रखते ही है। फिर यह कौन-सा नित्य का काम है ? वे ध्यान में लीन हो, उनके ध्यान ही में न आवे या अन्य उपायों में कार्य कराया जा सकता हो तो वात अलग है। गुरु को कौन कष्ट देना चाहेगा।
धर्म-स्थानक मे यदि कोई बालक पत्थर से पात्र फोडने लगे या सावु-मानियो
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