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वस्तुतः श्री भीखणजी स्वामी के अन्न और जल जैसे जीवनोपयोगी पदार्थों के उपयोग को हिंसा-पूर्ण समझ लेनेही के कारण सारा मामला किर-किरा हो गया। उसी कारण वे शुरु से अंत तक चूकते ही गये। कुछ उदाहरण और ले। .
छद्मस्थ चूके 'प्राणी के प्राण वचाने में और प्राणी की प्रतिपालना में क्या अंतर है कितना अतर है, इसको विना सोचे समझे ही स्वामी श्री भीखणजी ने 'प्राणी के प्राण बचाने मे एकान्त पाप है' इसकी सत्यता कायम रखने के लिए "तीर्थकर भगवान चूक गये", एक जगह यहाँ तक कह डाला।।
सफाई में आचार्य श्री भीखणजी का यह फरमाना कि तीन ज्ञान सहित जन्म लेने वाले तीर्थकर भगवान तो खेलते-कूदते भी है, विवाह भी करते हैं, विषय-भोग भी भोगते है, राजगद्दी पर भी बैठते हैं और मौका उपस्थित हो जाय तो संम्भवत. युद्ध भी कर लेते हैं परन्तु उनके ऐसे व्यवहारो को धर्म-पूर्ण थोडे ही माने जा सकते है ? तीन ज्ञान के धणी तीर्थंकरों के अपनाने के कारण उनका समर्थन थोडे ही किया जा सकता है ? इसलिए सभी स्वीकार करेंगे कि यहाँ तो परमात्मा प्रत्यक्ष चूके है। इसी प्रकार जब तक परमात्मा केवल ज्ञान प्राप्त नही कर लेते सयमी यानी छमावस्था में भी चूक सकते है।
आचार्य श्री का ऐसा समझना या समझाना हमें यथोचित नही लगता। पहले हम गृहस्थावस्था के सम्बन्ध में ही सोचें-भोले जीवो को अध्यात्मवाद की तरफ आकर्षित करने और उसमें रुचि उत्पन्न करने के लिए, हम गृहस्थावस्था की कठिनाइयो का, मोहजाल के फदे का चाहे जितना दिग्दर्शन करावे; उसकी कमियो को सामने लाकर, उसमें अरुचि उत्पन्न कराने की चाहे जितनी चेष्टा करे, तुलना में चाहे जितनी नीची श्रेणी की वतलावे, अध्यात्मवाद के शुद्ध स्वरूप को चाहे जितना बखाने; महावत की महानता को चाहे जितना समझावें; परम सुख की विशेषता को चाहे जितनी उच्च कहें कोई आपत्ति नही, पर गृहस्थावस्था मे कुछ है ही नहीं, वह व्यर्थ है, एकान्त निकम्मी है, सम्पूर्ण पाप-पूर्ण है, उससे कुछ प्राप्त हो ही नहीं सकता, इत्यादि ऐसा कभी नहीं कह सकते। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शुक्लध्यान की तुलना में हम धर्म-ध्यान को निकम्मा नहीं कह सकते ।