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पहुंचाई जाय यानी उसका जीवन बना रहे, यही तथ्य सामने आता है। मुनिराज भी यही चाहते है कि प्रत्येक प्राणी के जीवन में शान्ति बनी रहे। वे भी सवको "आत्मवत् सर्व भुतेपु" समझते है।*
फिर यह क ना कि प्राणी के जीने को अच्छा नही समझते या उसके जीने को नहीं च हते या उमकी जीवन-रक्षा के लिए कोई कार्य करना नहीं चाहते, सचमुच आश्चर्यजनक है।
हकीकत यह कि 'अवती जीवो के जीवन को बचाना पाप है ऐसा समझ, ये सब तरफ से उलट गये। उचित था ये न उपदेश देने से मतलव रखते न किसी को तारने से। सिद्धो की तरह ध्यान लगाये बैठे रहते । दुनिया की भलाई में भी पडना और तथ्यातथ्य का ध्यान न रखते हुए उसी को पाप पूर्ण वताना अत्यन्त शोचनीय है । उनका उद्देश्य कितना त्रुटि और कपट पूर्ण है, इस सम्बन्ध में यहाँ विचार करना आवश्यक है। भविष्य का फलाफल समझ में न आया हो या अच्छा समझने के बाद भी कर्म सयोग से विपरीत वातावरण में चला गया हो तो बात दूसरी है । फलाफल को स्पष्ट जानते हुए और अपने ही मुख से प्रारम्भ में बचाने के लिए पूरी तरह दलीलें देते हुए भी, जैसे-'अरे वकरे को मत मार' * ; फिर ऐसा कहना कि 'वकरे के जीवन से हमारा कोई मतलव नहीं', उनके कपट का पहला चरण है। कपट का दूसरा चरण, बकरे की अकाल और असगत मृत्यु से कर्मों के भार को हल्का समझना और तीसरा
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* भिक्खू दृष्टान्त-२३६, पृष्ठ ९६
...। सजीव पिण इम हिज जाण । मार्यो दुःख पावे है । भिक्खू दृष्टान्त-भूमिका, पृष्ठ १०
... । “अमवत् सर्व भूतेषु" की भावना के वे (भीखगजी स्वामी) एक सजीव प्रतीक थे। 'छहों ही प्रकार के जीवों को आत्मा के समान मानों भगवान को यह वाणी उनकी (स्वामीजी की) आत्मा को भेद चुकी थी। • * भिक्खू दृष्टान्त-१२८, पृष्ठ ५४
...समझाव, 'वकरा ने मारयां तूं गोता खासी ।... भिक्खू दृष्टान्त-१४८, पृष्ठ ६० ... | चकरा मारवा रा जाव जीव पचखाण कराया ...
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