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प्राण-रक्षा के अवसर पर 'व्रत, अव्रत' की ग्रोट मे अकारण भविष्य की गहराई में जाना, पाप समझना और प्राणी की प्राण रक्षा करनेमे अपने सामर्थ्य का जानबूझ कर प्रयोग न करना भयकर भूल ही कही जायेगी । व्रती कौन से अवती - नही बनते और अव्रती कौन से व्रती नही बनते ? ऐसे मोके पर गलत दृष्टान्त से भाइयो को भ्रम में डाल, कर्त्तव्यच्युत करना घोर पाप है ।* बकरे मारने वाले को उपदेश देकर जो उससे हिंसा छुडाई, आपने उपकार किया और उसे धर्म माना, विपरीत प्रतिक्रिया तो उसमें भी उत्पन्न हो सकती है । बचे हुए बकरे किमी का खेत उजाड सकते है । किसी की धान की वोरियो
मुँह डाल, हानि पहुँचा सकते । ऐसे अवसर पर यदि क्रोधवश कृपक या दूकानदार बकरे पर डंडा उठाने के साथ-साथ आप पर भी डंडा उठाले और कहने लगें - " मरी खाय इन उपदेश देने वालो को, आग लगे इन उपदेशो में | उपदेश दे दे कर सत्यानाश कर दिया । मार रहे थे, नही मारने दिये । अव इसके कडवे फल भोगे हम, इत्यादि । "
यही क्यो, वाल-दीक्षा के लिए भी कितने उग्र विरोध आते हैं । भगवान -के दो शिष्य भगवान के सामने ही मार डाले गये । गजसुकमालजी के मस्तक पर अगारे रख दिये गये । बहुतो की खालें खीच ली गईं। पाँच सौ क्षमावन्त मुनिराज घानी में पिलवा दिये गये । शास्त्र और साहित्य की होली जलाई गई । बतलाइये, आप क्या करेंगे ? ससार को तो यही धारा है । विरोधी तो अच्छे - का भी विरोध कर बैठते हैं । तो क्या आप उपदेश देना वद कर देंगे ? क्या आप अपने सत्य के मार्ग को छोड देंगे ? या धर्म- ध्यान से मुँह मोड लेगे ?
मान लें कि किसी जीव को व्यवहार से बचाना उचित ही नही समझते तो फिर उसके लिए दूसरो को "न मारने का उपदेश" देना भी उचित नही ठहरता ।
मृत्यु के समय प्राणी को जो कष्ट होता है उसी के लिए ज्ञानी पुरुषो ने किसी प्राणी को मारने में पाप बतलाया है । वस्तुत. किसी प्राणी को यह वेदना न
*भिक्खू दृष्टान्त - १४०, पृष्ठ ५८
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• संसार नो उपकार इसो है । मोक्ष नो उपकार कर ते मोटो तिण में कोई जोखो नहीं ।
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