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प्रकार से सम्वन्धित ही नही । स्वामीजी के विचारानुसार बकरा मारने वाला तो डूब रहा था और वकरा तिर रहा था । पर यहाँ बकरे का तिरना कैसे माना जा सकता है ? इस तरह की असगत मृत्यु से ऐसा साधारण जीव कैसे धर्म प्राप्त कर मकता है ? कैसे कर्मों से हल्का हो सकता है ? फिर भी आचार्य श्री भीखणजी के कथनानुसार यदि यह मान लें कि बकरा इस प्रकार की मृत्यु का भोग, भोगकर अपने कर्मों को काटने में समर्थ हो रहा था, अपने ऋण को चुका रहा था तो मुनि यह जानते -बूझते उसके हित मे अतराय के कारण क्यो बने ? डूबता तो एक मारने वाला ही डूबता बाकी उसके हाथ से हजारो, लाखो बकरे तो कर्मों के भार से मुक्त ही होते, अपने ऋण से उऋण ही होते । लाखो तिरे और एक डूब भी जाय तब भी घाटे का काम थोडे ही होता ? उचित था मुनि ऐसे अवसर पर मौन रह जाते । मुनि के प्रयत्न पर, मारने वाले ने यदि उसे न मारा तो वकरा कर्म काटने का वह सुवर्ण अवसर ही नही पा सकेगा और तव निश्चय इस अतराय के कारण वनेंगे मुनि । भविष्य में भी ऐसा सुयोग उसे मिलेगा या नही, भगवान जानें |
वकरा श्रीर वकरा मारनेवाला एक दूसरे के कार्य से कैमे सम्बन्धित है, कैसे प्रभावित होते है, यह समझना निता त आवश्यक है । एक बाप के दो बेटो की तरह वे यहाँ अपना-अपना अलग व्यापार नही कर रहे हैं कि जिसके लिए यह कहा जा सके कि एक तो ऋण चुका रहा है और दूसरा ऋणी वन रहा है बल्कि यहाँ तो प्रत्यक्ष डकैती है । एक लूटा जा रहा है और दूसरा लूट रहा है । एक मारा जा रहा है, दूसरा उसे मार रहा है । द्रव्य-दृष्टि छोड कर भाव दृष्टि से भी यदि देखें तो भी यही देखेंगे कि हानि दोनो ही उठा रहे है । वकरा मारने वाला वकरा मार नही रहा है खुद ही मर रहा है यानी पापो मे डूब रहा है । बकरा भी मर रहा है और मरने को वाध्य किया जा रहा है यानी पाप करने को मजवूर किया जा रहा है । मृत्यु को सामने खडी देख और मरने की भयानक वेदना का अनुभव कर उसका रोम-२ कपित हो उठता है । उसका हृदय अत्यन्त भयभीत होता जाता है एवं उसकी कातर दृष्टि मे असीम वेदना झलक उटती है । ऐसी असगत एव अयाचित मृत्यु के समय साधारण जीवो में इस तरह का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है ।
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