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श्रीभिक्षु स्वामी का तो यह मूल सिद्धान्त था कि ऐसे जीवो के बीच में साधु तो क्या, श्रावक को भी नही पडना चाहिए जहाँ एक को अतराय और दूसरे को लाभ हो, एक का पोषण और दूसरे का नाश हो । लेकिन बकरा और बकरा मारने वाले के वीच बचाव में मुनिराजो का पडना उन्होने भी अपने श्री मुख से उचित ठहराया है और जब उनके इस कार्य से बकरा बचता है तब इसमे कोई सन्देह नही रह जाता कि कम-से-कम बकरे के वचने मे बकरे का अहित तो नहीं है। इतना होने पर भी मुनिराजो ने बकरे के बचने को क्यो नही चाहा और क्यो नही उसको बचाने के उद्देश्य से कार्य किया, यह विचारणीय विषय है। __ जहाँ इस तरह का प्रसग या स्थिति होती है, वहाँ हमे उपयोग और विवेक पूर्वक सब ओर ध्यान रखना ही पड़ता है। यदि हम सावधानी नही रखें और विना सोचे समझे, कार्य प्रारम्भ कर दें और उसके कारण कोई अप्रिय घटना घटित हो जाय तो उसका दायित्व हमारा ही होता है। यही कारण है कि दीक्षा लेने वाले महापुरुषो से सम्बन्धित उनके कुटुम्बीजनो को भी राय लेनी होती है। शीलवत स्वीकार करने वाले पति-पत्नी दोनो की स्वीकृति ली जाती है। हालाकि यहाँ तो पूर्ण व्यक्तिगत आत्मोन्नति का प्रश्न है। अन्य किसी पक्ष को हानि पहुंचने या पहुँचाने का कोई कारण ही नही है । तव बकरे और बकरे मारने वाले, एक प्राण जैसे मामले के बीच में पड मुनि यदि यह कहते है कि बकरे से उनका कोई सम्बन्ध नही तो समझ लीजिए उनमे साधुत्व तो क्या, मनुष्यत्व भी नहीं है ।
सफाई में आचार्य श्री भिक्षु स्वामी फरमाते हैं कि. जो जीव डूब रहा हो बचाने का प्रश्न तो उसके लिए ही पैदा होता है । जो डूब ही न रहा हो* उल्टे तिर रहा हो, उसको बचाने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। पर बकरा और बकरा मारने वाले के प्रसग को देखते हुए ऐसा कहना नितान्त असगत है। इसका मतलब यह हुआ कि एक की क्रिया से दूसरा, किसी
*भिक्षु दृष्टान्त-१२८, पृष्ठ-५४.
... स्वामीजी बोल्या : साधु वुड़ता ने तारे। ... ऋण माथै करै तिणनें वर पिण उतारै तिण ने न बरजै ।...मारन वालो तो कर्मरूप ऋण माथ कर है अने बकरा आगला कर्मरूप ऋण भोगव : उतारै है ।...
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