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चरण बकरे के वचने मे जो धर्म का लाभ मिलता है उसे न समझना है। यानी विषय की गभीरता को न समझ ये अपनी
इनका उद्देश्य भूलो से भरा हुआ है । डफली बजाने में ही मस्त हैं ।
जहाँ दो जीव आपस मे जूझते हो, एक को छुडाने का अर्थ ही दूसरे को छुडाना है | कारण एक का छोडना और दूसरे का छूटना एक समय में ही घटता है । तब फिर निरपेक्ष व्यक्ति तो दोनो की भलाई चाहता है और दोनो की भलाई को दृष्टिगत रख कर कार्य करता है । एक से मतलब रखना पक्षपात पूर्ण है, पाप है । कह नही सकते आचार्य श्री भीखणजी यह क्यो नही समझ पाये ।
हम भी दोनो जीवो के बीच में पड़े बालक और चीटियो के । दोनो को बचाने की दृष्टि रखते हुए भी चीटियो से हमारी विशेष सहानुभूति रही क्यो कि चीटियाँ निर्दोष थी । उनके प्रति अन्याय किया जा रहा था । उन्होने ही हमें पुकारा, 'बचाओ'। मरने की वेदना को लक्ष्य कर हमे रोमाच हो आया । हृदय मे दया उमड पडी । 'चीटियाँ बचें एव वालक उन्हें दुख न दे, उन्हे न मारे' यह हमारे हृदय की पुकार थी । चीटियो से हमारा कोई सासारिक स्वार्थ नही । 'मभी को जीवन प्यारा है' ऐसा समझ हमने बालक के हाथ से शीघ्र पत्थर छीना और मन ही मन कहा - "रे नादान हमारे सामने यह क्या अनर्थ कर रहा है ? जीवो को दुख देकर, उन्हें अशाता पहुँचा कर, उनके आत्म-प्रदेश में अनन्तानन्त कपायों की वृद्धि का कारण वन क्यो पाप का भागी हो रहा है । पत्यर छोड, ऐसा पाप का भागी मत वन ।" इघर चीटियो को भी वचने पर महान् हर्ष हुआ जैसा भी जीवो को होता है । उनका रोम-रोम उत्फुल्लित हो यह कहेगा ( कहा होगा), "हे बचानेवालो, हे प्राणदान देनेवालो, आपने वडा उपकार किया । हमे वडे क्लेश से बचाया । इस दुर्गति-पूर्ण मरण से उत्पन्न हुए महान् पायो के उदय मे और महान् आर्त, रौद्र-ध्यान की चपेट से न मालूम हम किस नरक में जाकर गिरती । आपने बचाया, आपका धर्म अति निर्मल है । हम भी कभी ऐसा मनुष्य-भव मिलेगा ? ऐसा धर्म मिलेगा ? हमें भी कभी दुखी जीवो के प्रति उपकार कर, ऋण से उऋण होने का ऐसा सुयोग मिलेगा ? हे भाग्यशाली, आप महान् उपकारी है, आदि ।”
वचने पर प्राय जीव, बचानेवाले के धर्म की अनुमोदना किया ही करते है और ऐसे प्रयत्न से यदि वे समकित को भी स्पर्श कर ले, तो कोई आश्चर्य नही ।
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