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और इन कारणों से उसकी आमदनी कम हो तो यह किसके हाथ को वात है । मुनिराज व्याख्यान देते हैं सबके लिए एक समान । उसी व्याख्यान से कई अधिक लाभान्वित हो जाते हैं, तो कई कम ही रह जाते है । बतलाइये, इसमें मुनिराज का क्या दोष ? उसी तरह वालक को या हमको कम लाभ मिला, तो इसमे उस प्रयत्न का क्या दोष ? पाप या धर्म की मात्रा तो जीवो के भावो की उत्पत्ति पर ही निर्भर है ।
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यदि कम खर्च वाले के कम आमदनी हो तो उतने अफसोस की बात नही । बच्चे के हल्के ही कर्म बघते है तो लाभ भी हल्का ही होता है। लाभ न भी होता हो, हानि ही यदि कम हो तो भी लाभ ही समझा जाता है फिर जिस जीव का जैसा सयोग । पापो से बचाने वालो के प्रयत्न के हिसाव से उन्हें उतना लाभ अवश्य मिल जाता है जितना उन्हें मिलना चाहिए। चाहे समझने वाला समझे या न समझे । माने या न माने । क्या आप कह सकते हैं कि वकरा मारने वाला यदि न समझता तो मुनिराज को उस प्रयत्न से धर्म का लाभ होता ही नही ? नहीं, ऐसी बात नही है । धर्म का लाभ तो अपने उत्तम भावो पर ही निर्भर है, किसी दूसरे पर आश्रित नही । अभवि जीव अनेक जीवो के उपकार का कारण बनने पर भी उसे कुछ नही मिलता । इसका कारण उसके हृदय के भावो का मैलापन ही है । हाँ, किसी के समझ जाने से, धर्म का अधिक उद्योत देख, अधिक उल्लसित होने के कारण, कोई अधिक लाभान्वित भी हो जाता है यानी लाभ अपने भावो पर ही निर्भर है ।
चीटियाँ न मारने के कारण बच्चा भी पाप से बचा और बकरे न मारने के कारण बकरे मारने वाला भी पाप से बचा । इतना लाभ तो दोनो का हमारे सामने स्पष्ट है बाकी और क्या - २ लाभ या हानि उन्हे हुई यह तो केवली भगवान हो जानें । यहाँ तक तो मुनि महाराज का और हमारा प्रयत्न समान रहा । इधर बकरे बचे, उधर चीटियाँ बची, इधर बकरे मारने वाला पापो से बचा, उधर चोटियाँ मारने वाला भी पापो से बचा । अब रहा यही देखना कि बचानेवालो मे क्या अन्तर है ? यहाँ एक को तो स्वामी श्री भीखणजी धर्म की प्राप्ति और दूसरे को पत्थर की प्राप्ति यानी पाप की प्राप्ति बतलाते है । ऐसा क्यो ?
यही हमारे मुख्य विचारने की बात है । यहाँ स्थिति यह है कि उनका पात्र एक ज्ञानवान व्यक्ति है और हमारा पात्र एक अज्ञानी, अवोध बालक ।
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