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चाहिए | धार्मिक पुस्तको के छपाने में, व्याख्यानो से धर्म प्राप्त करने के लिए बडे-वडे उपाश्रय या पडाल बनाने में, मुनिराजो से धर्म प्राप्त करने के लिए रेल या मोटर से आने-जाने में, दीक्षा लेने वाले महापुरुषो के सम्मानार्थ जुलूस निकालने
एव उनका दीक्षा महोत्सव आयोजित करने में, देव लोक हुए मुनिराजो की ठाठ से अर्थी निकालने में तथा उनकी स्मृति में स्मारक बनाने में, पचमी जाते हुए मुनिराजो के पीछे - २ बरातियो की तरह चलने में, बिहार करते हुए मुनिराजो के साथ (सेवा के बहाने ) रह कर लश्कर की तरह तम्बुओ के ढेर तथा पानी की टकिये आदि ढोने में, 'चौमासे' मे पधारनेवाले भाइयो के लिए लकडी पानी, जगह इत्यादि का प्रबन्ध करने में, रात के व्याख्यानो निमित्त गैस की बत्तिया जलाने आदि आदि सैकडो ठिकानो पर हिंसा कम करनी बाकी रह जायेगी । कोई अपना रहा है, इसलिए इसे अनिवार्य नही कहा जा सकता । इन सब व्यवहारो को अपनाये विना भी उनका शरीर मजे में खड़ा रह सकता है । किसी दूसरे ससारी काम के लिए भी नही अपना रहे है, अपना रहे हैं, धर्म प्राप्ति के लिए। इसलिए प्रार्थना इतनी ही है कि स्वेच्छानुसार हिंसा को कम से कम न समझ, अति आवश्यक व्यवहारो को ही वे अपनावे | तब उन्हे समझ मे आ जायेगा कि बिना हिंसा के धर्म की प्राप्ति कैसे की जाती है और धर्म प्राप्ति के लिए हिंसा अपनाना कैसे आवश्यक है ।
हिंसा समझने के बाद अपनाते वे भी हैं - अस्तु, कुछ भी हो इतना तो शायद उनकी समझ मे भी आ गया है कि हिंसा को हिंसा समझने के बाद अपनानी तो उन्हें भी पडती है और अपनानी पडती है धर्म प्राप्ति के लिए । कम और ज्यादा हिंसा के विषय में मैने क महानुभाव से प्रश्न किया
"लक्षणो से मुझे ऐसा लगता है कि आजकल आप लोग भी हिंसा में अधिक प्रवृत्त होने लगे है । पुस्तको तथा साधु सन्तो के चित्र इत्यादि छपाने का काम आगे की अपेक्षा बहुत अधिक बढ रहा है । साधु सन्तो की सेवाओ में तथा दर्शनार्थ पधारने में वसो, मोटरो इत्यादि का उपयोग विशेष रुप से होने लगा है । क्या जव मोटरें नही थी, अथवा कम थी तो लोग धर्म ध्यान नही कर पाते थे ? फिर आप जैसे हिंसा के स्वरूप को समझने वालो के लिए ऐसे हिंसा युक्त अवलम्वनो का धर्मप्राप्ति में अधिक उपयोग क्यो ? और अफसोस तो इस बात है कि ऐसी हिंसा को छोडने की सामर्थ्य रहते हुए भी, हिंसा को कम करने की
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