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तरह गोबर से खाद, खाद मे गन्ना और गन्ने से गुड वन जाता है ) तभी हम उमे अपनाते है | यहाँ हमे इतना ही कहना है कि जब समतदार हिंसा समझने के बाद भी उन क्रिया को करना स्वीकार कर लेते है और हम तरह करने लगते है तो हम आगा करनी चाहिए कि निकट भविष्य मे अव प्रार अधिक हानि होने की सम्भावना नहीं है । वर्तमान मे अपनी नासमझी के कारण यदि ये गुड़ की गांवर ही नमज्ञ रहे हो तब भी न तो गुड़ के मिठान में की पड़ रही है नीरन येने दूर हो जा रहे हैं। हां, वे खाते हुए भी स्वाद न लें या अनमने मन से माने हुए अपने स्वाद को हो faगा ले तो समझना चाहिए, यह उनकी दशा काही फेर है ।
विषय सेवन में निर्मल उद्देश्य हो असम्भव - " अशुद्ध यानी हिमायुक्त किया निर्मल उद्देश्य की प्रोट में कैसे उचित बताई जा मकती है ? वह हिंसा की कोटि में कैसे जा सकती है? उनकी भयकरता छिनाई जा सकती हाउसका समर्थन कैसे किया जा सकता है ?" इस सम्बन्ध मे शफा करते हुए एक अनुभवी महानुभाव ने प्रश्न किया- "महापुरुष अवतीर्ण होगे, सत पुस्प उत्पन्न होगे और ममार का बडा उपकार होगा- ऐसा निर्मल उद्देश्य बनाता हुआ परम पुनीत भावो मे यदि मं विषय भोग अपनाऊँ, भोगू, तो क्या मेरे ऐसे विनय-भोग उपयुक्त, हितकारी और जहसा पूर्ण समझे जा सकते है ? क्या ऐसे पियों का नमर्थन किया जा सकता है ? महान् उद्देश्य तो सबके सामने साट ही है ।"
पाठक वृन्द, प्रश्नकर्ता का प्रश्न सामने है । अपना समझ के अनुसार अब उन्हें उत्तर देना है । प्रश्नकर्ता की सास नमन यह है कि जैसे यहाँ निर्मल उद्देश्य होते हुए भी, अशुद्ध क्रिया यानी विपय-भोग की कि उचित नही कही जानकती ठीक वैसे ही भगवान की भक्ति या अन्य धर्म कार्यों में, निर्मल उद्देश्य दिखा कर का प्रयोग (जो उनकी समझ से हिंसा युक्त है ) उचित नही ठहराया जा सकता । अस्तु, उनकी समझ कुछ भी हो, वात तो यह है कि यदि उद्देश्य निर्मल हो जाय तो किया की अशुद्धि रहती ही नही । वहाँ किसी भी प्रकार से क्रिया को शुद्धि अनिवार्य है । जैमे केवल ज्ञान को प्राप्ति के बाद, चरित्र्य निर्मलता का कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता । हाँ, उद्देश्य मे खोट हो या क्रिया उद्देश्य का मिचन करने में ही असमर्थ हो और हम अज्ञानता के कारण या जान
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