________________
फँसने का मौका उपस्थित होता, आदि समस्त झझटो से भी वाल - २ वच जायेगा । परन्तु मान लीजिये उसके दुर्भाग्य से, दूसरे सेठ ने उसकी आशा पर पानी फेरते हुए, चदा दे ही दिया तो भी क्या हुआ, वह तो विना घवडाये, अपनी होशियारी से चदा देने से बचता ही जायेगा । अन्त मे यह बात कह कर ही कि उन्होने दे दिया तो क्या हुआ, इस कार्य में वडा चदा देने को तो में आवश्यकता नही समझता, और छोटा चदा देना मेरी शान के खिलाफ है, साफ बच जायेगा ।
हमारे प्रश्नकर्त्ता भी उस सेठ की तरह, अभी तो यही समझकर कौडी फेक रहे है कि ऐसा सिद्ध थोडे ही होगा या यह सिद्ध हो ही नही सकता । पर जब उन्हें सारी बातें सिद्ध होती नजर आने लगेंगी, तव यह कहने से उन्हें कौन रोक सकेगा - "हम तो ऊँची- २ क्रियाएँ करनेवाले हैं । ऐसी निम्न श्रेणी की क्रिया की हमें आवश्यकता नही । चाहे वह किसी के लिए उपयुक्त है तो हमें क्या अस्तु, देखें क्या गुल खिलता है । यदि ये ऐसा स्वीकार कर लेगे तो भी कोई हर्ज नही । हानि इसमें हमारी भी नही है ।
--
इतने विवाद के पश्चात् शायद हमारे प्रश्नकर्त्तागण भी ध्यानस्य मुनिमहाराज को वदन नमस्कार करने में धर्म ही मानेगे । कदाचित् ऐसी मान्यता से, मूर्ति पूजा की पुष्टि होते देख, भविष्य में कुछ लोग ऐसी घोषणा भी कर दे - कि ध्यानस्य मुनि - महाराज के दर्शन और उनके वन्दन से लाभ नही होता, प्रत्युत जाने-आने की क्रिया से हिंसा होती है । छ काया के जीवो की विराधना होती है तो कोई आश्चर्य की बात नही । जिनका ध्येय ही मूर्ति पूजा का विरोध करना है, उन्हें हजार विपरीत वातें अपनानी स्वीकार हैं, पर मूर्ति-पूजा की पुष्टि होते देखना, उन्हें स्वीकार नही । ऐसी मान्यता अपनाने पर भी, मूर्तिपूजा की जडे काटने में वे समर्थ होगे या नही, ज्ञानी जानें पर उनके लिए तो यह अहितकर ही होगा । वे मूर्ति माने या न मानें, हमारे मन में उनके प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना नही है । स्वघर्मी की दृष्टि से हम उनकी हानि के सम्बन्ध में उन्हें सचेत कर देना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। हम उनकी ऐसी घोषणा को इसलिए हानि - पूर्ण समझते हैं कि ऐसा मानने से ध्यानस्थ एव अस्वस्थता या वृद्धावस्था के कारण उपदेश देने में असमर्थ अनेक साधु साध्वियो की महा आशातना से महा पाप का उदय तो होगा ही, साथ ही उपदेश को न समझने वाले, उपदेश न होता हो उस समय दर्शन निमित्त आनेवाले, विहार और पचमी के समय सेवा
ܕ
५५