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'बूझ कर उससे उद्देश्य पूर्ति होती है या हो रही है, ऐसा मान बैठे तो मामला किरकिरा होना निश्चित है । प्रश्नकर्ता महानुभाव के उद्देश्य में यानी हृदय के भावो में कहाँ भूल या कपट है उसी को हम पाठको के सामने स्पष्ट करेंगे । कोई " साधु पद पाना अच्छा या बुरा है १" या "मनुष्य भव पाना अच्छा या बुरा है ?" तो झट कहेंगे-अच्छा है । अब यदि कोई साधु पद पाकर अपने लक्ष्य की तरफ न बढे या मनुष्य भव पाकर भी अपनी जिम्मेवारी नही निभावे तो हम उस व्यक्ति विशेष को हो बुरा कहने के अधिकारी है । पर कभी कभी व्यवहार से कई ऐसा भी कह देते है- आखिर अन्न के कीडे ही तो ठहरे । यहाँ अन्न खाने वाले समस्त समाज पर एक आक्षेप आता है । पर यह तो हम जानते ही है कि समस्त समाज यहाँ दोषी थोडे ही है । ठीक इसी प्रकार जब आप पूछते हैं- "विपय भोग अच्छा या बुरा ? तो तुरन्त कहेंगे - " बुरा" । विपय को अपनाना भी बुरा, विषय का समर्थन करना भी बुरा । यदि मैं आत्म हत्या की दृष्टि से कुएँ में पड जाऊँ और देवयोग से बच कर खजाने सहित बाहर निकल आऊँ तो भी मेरा कुएँ मे पडना अच्छा नही कहा जा सकता । पर आगे चलकर कुछ प्राप्ति समझ यदि दुनिया कह बैठे कि चलो अच्छा ही हुआ तो कह सकती है । इसी प्रकार विषयो के बारे मे सम्भव है आगे चलकर कोई अच्छा फल प्राप्त हो जाय और दुनिया उस अच्छे फल को देखकर उस अपनाये हुए विषय को भी लाभकारी वतलाने लगे, तो अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है । जैसे तीर्थंकरो या साधु-सन्तों को देखकर दुनिया उनके माता-पिता की बडी प्रशसा करने लगती है और उन्हें धन्य -२ कहने लगती है और ऐसे नर रत्न की भेट के लिए वडा उपकार मानती है । हमारे तेरापथी भाई आज भी बडे भाव मग्न होकर गाते है"छोगा रत्न कुक्षि की धरनी । " छोगाजी उस समय गृहस्थी में ही थी । आचार्य श्री कालुरामजी भी रत्न नही बन पाये थे । जन्मे, खेले - कूदे । रत्न तो दीक्षा लेने के बाद मे बने । फिर छोगाजी की इसमे क्या प्रशसा ?
माता-पिता भी इस उपज को अपने बिपयो की करामात नही समझते है क्योकि वे जानते है कि यह तो उनकी अनजानी, अनिश्चित और अनिर्धारित प्राप्ति है । विषय का सेवन तो उन्होने स्वेच्छा से, काम वासना से प्रेरित होकर ही किया था, जो निश्चय ही बुरा था । वे तो यह भी जानते हैं कि उनकी आत्मा का उद्धार इस सुफल के उदय से ही हो गया, यह निश्चित नही है ।
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