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है कि इनमें पाप है बल्कि इसलिए कि वे और भी ऊँची श्रेणी में पहुँच जाँय | ध्यान में लीन मुनिराज, यह जानते हुए भी कि मन्दिर जाने में धर्म है, महीनो इसलिए मन्दिर नहीं जाते हैं कि ऊँची श्रेणी में पहुँचने के कारण वे उससे भी अनेक गुणा अधिक लाभान्वित है । लाख दो लाख का उपार्जन करने वाला व्यापारी पाँच, दस रुपये के उपार्जन को लाभ का काम समझते हुए भी, उसे नहीं अपनाता क्योकि उससे भी अनेक गुणा अधिक मुनाफा उसे मिल रहा है। आखिर काम मुनाफे से है । थोडा मुनाफा अधिक मुनाफे के सामने व्यवहार मे घाटे का ही काम समझा जाता है। अधिक मुनाफे को छोड न तो कोई कम मुनाफा अपनाता है, न उसका अपनाना ही उचित कहा जा सकता है ।
द्रव्य-पूजा किसी हद तक परमात्मा में अनुराग उत्पन्न करने के लिए और द्रव्यो में आसक्त प्राणियो की आसक्ति कम करने के लिए है । परमात्मा के गुणो के पूर्ण रागी और द्रव्यो की आसक्ति से बिलकुल परे जो भावस्थ साघु वन गये है वे इतने ऊँचे पहुँच जाते हैं, इतने आगे बढ जाते है कि द्रव्य-पूजा जैसी लाभ पहुँचाने वाली क्रिया तो उनकी उस उच्चता के सामने, अत्यन्त निम्न श्रेणी की क्रिया रह जाती है । अत द्रव्य - पूजा मुनिराजो की उच्चता की अपेक्षा से घाटे की ही क्रिया हो जाती है और यही कारण है कि उसे वे नहीं अपनाते । हालाकि हम जैसे द्रव्यो मे आसक्ति रखनेवाले कमजोर और पिछड़े लोगो के लिए तो वह बहुत कुछ है ।
लाभ हो तो प्रतिमा-पूजन अपना सकते हैं
कई लोगो का कहना है, "भविष्य मे कुछ लाभ यदि हो तब ता क्रिया से उत्पन्न कुछ हिंसा भी स्वीकार की जा सकती है । जैसे मुनिराजो के दर्शनार्थ जाने-आने से कुछ हिंसा जाने-आने में जरूर करनी पडती है पर बाद में उनके मुखारविन्द से, अमृत समान जिनराज भगवान की वाणी सुनने को मिलती है और जीते-जागते चरित्र - गुण की अनुमोदना करने का लाभ भी मिलता है । मूर्ति से तो कोई लाभ होता नही दीखता फिर व्यर्थ में हिंसा अपनाने से क्या लाभ
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यह कहना उचित होगा कि क्रिया तभी अच्छी समझी जा सकती है जब उससे कुछ लाभ की आशा हो । व्यापारी व्यापार करता है लाभ की आशा से । पहले कुछ खर्च भी मंजूर करता है भविष्य में लाभ की प्राप्ति को देख कर |
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