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जगह और अधिक अपनाते हुए कुछ ठाठ-बाट अधिक ही करते नजर आते हैं। हिना को हिमा' यानी अफीम या गोवर के समान समझाने और समझने के वाद मदिरो को तो आपने क्षणमात्र में छोड़ दिया। इससे आगा तो यही थी कि
और ठिकाने भी आप हिंसा दिन-पर-दिन कम ही करने पर जैसा मैने ऊपर कहा है उल्टे आप तो दिनो-दिन हिंसा मे और अधिक ही प्रवृत्त हो रहे है।"
तब उन्होंने नक्षेप में उत्तर दिया-"हम हिंसा अधिक अपनावें या कम, हिमा को हिंमा समझ कर अपनाते हैं। सही दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं। गोवर को गुड नमझने की भूल करने वाले नहीं हैं।" ___ सवाल विलकुल नीचा है कि हिंसा की भयकरता को समझने वाले, सामर्थ्य रहते उसको कम करने के स्थान पर अधिक क्यो करने लग गये? हिंसा की भयकरता को न नमझने वाला यदि हिमा करता है तो उसकी अज्ञानता को देखते हुए उस पर गम खा सकते है, उसे समझाने का प्रयत्न भी कर सकते है और भविष्य में उनके नुवर जाने की आगा भी रख सकते है पर हिंसा की भयकरता को जानने वाले यदि हिमा करें और दिन-२ अविक करने लगें तो क्या वे भी दया के वैसे ही पात्र है? भला यह कोई उत्तर है-"हिंसा को हिंसा समझ कर ही अपनाते हैं।" बकरे मारने वाला, यदि यह कहे-"मैं मारता जरूर हूँ पर इसे हिंसा समझता हूँ, यानी हिंसा समझ कर ही मारता हूँ।" यह कहकर यदि वह और अधिक बकरे मारने लगे और पूछने पर बार-२ यही उत्तर दे-"मैं कम मातं या ज्यादा हिंसा को हिंमा समझता हूँ। हिमा समझ कर ही अपना रहा हूँ।" तो अव उसे क्या समझावं? कैसे समझाव ? क्या हमें आश्चर्य नही होगा कि हिंसा समझता है और फिर भी उसे करता है और अधिक करता है | निश्चय ही उसके ऐना कहने पर हमे अत्यधिक हैरानी होगी। ____इसी तरह हमारे इन मुयोग्य भाइयो की भी हमें प्रशसा करनी चाहिए। ये भी हिंसा को हिंसा समझ कर ही अपना रहे हैं और अपनाते जा रहे है अधिकाविक मात्रा में। इनका दृष्टिकोण बहुत सही हो गया है। इनके हिसाव मे हिना छोड़ने की चीज नही, वह तो सिर्फ समझने भर की है। ___मजबूरी में, विपयो या कपायो के जोश में या आदत के वशीभूत किसी की लाचारी को स्वीकार भी करने पर उसकी समझदारी को कैसे स्वीकार कर - लें जो विना कारण के हिंसा करते है और दूसरो को भी हिंसा करने के लिए प्रेरित