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उत्पन्न होगे न मरेंगे, ऐमा जान कर महा. दया मान लें! तव हमें कहना पडता है कि हिंसा की दष्टि मे कच्चे जन की अपेक्षा गर्म जल के प्रयोग में अधिक हिंसा है। फिर अधिक हिंसा वाले कार्य को त्याग कैसे माना गया ? उत्तर में कई सज्जन ऐमा कह देते है कि ससार भर के कच्चे पानी को तो अभयदान दिया।" ऐमा समझना भी उचित नहीं है। कच्चा पानी पीने का त्याग किया है, उबालने या अन्य कामो में लेने का त्याग थोडे ही किया है। क्या उवालने से उन जीवो का नाम नहीं होता ? उवाला जाना तो किसी जीव के लिए और भी ज्यादा भयकर वेदना है। फिर यह अभयदान कैसा?
गर्म पानी पीने वाला तो प्यास की अनिश्चितता के कारण एक लोटे की जगह पांच लोटे उबालता है। इस दृष्टि से भी वह हिंसा अधिक ही करता है, जो इस त्याग की ही कृपा मममिये। फिर जहाँ इच्छा हुई वहां वह पानी पी लेता है, बस पानी गर्म किया हुआ मिलना चाहिए। इमलिए गर्म किये जाने वाले ससार भर के पानी का दोप भी उसे उठाना पडता है। अब विचारिये, गर्म पानी पीने वाला हिंना अधिक करता है या कम स्वास्थ्य एव अन्य कई दृष्टिकोणो से गर्म पानी निन्चय लाभकारी है और यही कारण है कि गास्त्रकारो ने इस व्यवहार की आज्ञा दी है परन्तु हिना कम है, का यहां कोई प्रश्न ही नही है। ___ जब प्रत्यक्ष हिमा अधिक की जा रही है तो फिर उसे त्याग मानें, धर्म मानें यह क्यो? "त्याग तो है, त्याग तो है" ऐमा कहने से काम नहीं चलेगा। क्या, दिन में भोजन करने का त्याग, त्याग माना जायेगा ? क्या, 'सत्य बोलने का त्याग' त्याग माना जायेगा? क्या मुनिराज सत्य बोलने का भी त्याग करा देंगे? महानुभावो | त्याग अवगुणो का किया जाता है। गुणो का त्याग, त्याग थोडे ही माना जा मकता है ? ऐसे व्यवहार से पाप मानने वालो के सिद्धान्त का तो यहां उन्ही के हाथो खडन हो जाता है जब कि अधिक हिंसा वाली क्रिया को अपना कर भी, वे उसमे त्याग और धर्म मानते है।
रास से पानी को पक्का बनाने की जो प्रया है वह तो और भी दयनीय है। वै मन में तो बढे सुग होते है कि पानी को गर्म करने मे जो हिंसा होती उससे तो वच गये पर वात बहुत ही उलटी हो गई। श्रावक लोग घडो पानी को जरूरत के बहुत पहले ही, इसलिए मौत के घाट उतार कर छोड देते है कि वार-२ यह तकलीफ न करनी पडे। कई दिनो तक वे इस पानी का व्यवहार