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करना चाहिए। मान ले कि हमसे ऐसा कडा निर्वाह होना कठिन है पर हमारे दयावन्त मुनिराज तो इसे निभाते! शरीर रहे तो क्या, न रहे तो क्या; भला जीवों को कैसे खाया जाय? छः काया के जीवो को अपने पुत्र के समान समझने वाले ये मुनिराज अपने ही पुत्र का कलेवर खा कैसे लेते हैं ? ___ सम्भवत' वायुकाय, तेऊकाय और अपकाय इत्यादि सूक्ष्म जीवो की भी हिसा हमारे द्वारा नहीं होती। कारण उनकी शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है (जैसे अत्यन्त महीन जुगलियो के बालो में, चक्रवर्ती की सारी सेना ऊपर से गुजरने पर भी, मोच तक नही आती)।
हमे अपने लिए यह समस्या हल करनी होगी ताकि व्यर्थ मे गलत धारणा की उत्पत्ति से हम अपने उचित लाभ से वचित न रहें। जहाँ पाप हो वहा धर्म समझना जैसे मिथ्या दृष्टि है उसी तरह जहाँ धर्म होता हो वहाँ पाप समझना भी मिथ्या दृष्टि का ही कारण है। ऊपर हम विचार कर चुके है कि पाप-बन्ध का सम्बन्ध मन के भावो से है जीव मारे जाने से नहीं। जयणा सहित कार्य करने की जो आज्ञा परमात्मा ने दी है उस पर भी विचार करना आवश्यक है ।।
अन्तर स्वतः सिद्ध है :-बस और स्थावर जीवो के बीच में तो हमें अन्तर रखना ही पड़ेगा। तत्वज्ञ पुरुष इतने मात्र से अन्दाज लगा लें कि साधु, मुनिराज को आहार देते समय उनके सामने अनिच्छा से यदि एक भी सजीव जैसे चोटो, माखी, मच्छर आदि का हनन हो जाय तो वे उसी समय से उस दिन के लिए उस घर का आहार लेना स्त्रीकार ही नहीं करते परन्तु स्थावर जीवों की इतनी जन-वझकर की गई हिंसा और उनके सामने होती हुई हिंसा को (जैसेगर्म पानी, खीर, तरकारी या अन्य पदार्थ जव उनके पात्रो में उँडेलते है तो उनके मतानुसार-भिवरवु द्रष्टान्त ३२, पृष्ठ १५-वायुकायों के जीवो की विराधना होनी निश्चित ही है। कारण वायुकाय के जीवो का छेदन-भेदन करते हुए ही ये पदार्थ उनके पात्रो तक पहुँचते हैं।) देखकर भी वे मन में कुछ भी विचार नहीं लाते और खुशी से आहार ले जाते है । तब निश्चिय ही यह हिंसा नही है।
द्रव्यों का 'कम या ज्यादा उपयोग :-ऐसी एक शका उत्पन्न हो सकती है कि यदि इन खाये जाने वाले पदार्थो के उपयोग में हिंसा नहीं है तो इनके अधिक उपयोग को 'पाप' और कम उपयोग को 'धर्म' क्यो मानते है ?