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उचित निर्वाह का? यदि परमात्मा ऐसा विवेक न रखते तो कोई भी प्राणी उनके मार्ग को निभा ही नही सकता । श्रावक तो मुनि महाराज के सामने अत्यन्त ही कमजोर पडता है इसलिए उसे तो और भी अधिक छूट की आवश्यकता रहती है । फिर जो सुविधाये मुनि को मिली हो वे भी श्रावक को न मिलें, नितान्त असम्भव ही है ।
यदि श्रावक का वैसा निर्मल उद्देश्य नहीं बन पाता तो मुनिराजो को छोड़ हम दो श्रावको के व्यवहारो को ही मिला कर देख ले | दो श्रावक तो हम निश्चय ही एक समान है |
सामान्य तौर पर यह देखा जा सकता है कि किसी भी श्रावक के शरीर से ऐसा एक भी धर्म - कार्य नहीं हो सकता जिसमे तथा कथित द्रव्यो का प्रयोग न होता हो या ऐसी प्राणहानि न होती हो । भले ही हम कम बुद्धि के कारण एक दूसरे को हिंसक बतलाने की भूल किया करे ।
बकरे के साथ फूल की तुलना हो गलत - - एक बहुत ही शान्त प्रकृति क्रे श्रावक भाई से मैने प्रश्न किया " प्रभु-पूजा में आप हमे किन - २ व्यवहारों से हिंसक समझते है ?"
उन्होने उत्तर दिया--" अधिक तो मै नही कहूँगा । मोटा-मोटी मदिरों में फूल और कच्चे पानी का जो प्रयोग किया जाता है, सरासर हिंसा करना है । जीव हिंसा करके भगवान की भक्ति करनी कैसे अच्छी मानी जाय ? आप ही सोचिये यह कहाँ तक उचित है ? बकरा चढानेवाले जव हिंसा करके अपने प्रभु की भक्ति करते देखे जाते हैं तो आप और हम सभी हाय-तोवा मचाने लगते है पर बकरे की बलि चढा कर भक्ति करने वाले को अपनी भूल थोडे ही दिखाई देती है ? ठीक उसी प्रकार आपको भी अपनी भूल दिखाई नही देती ।"
असल मे जब कोई बात दिमागमें ठूस जाती है तो वह निकालने से भी बाहर नही निकलती । इन भाइयोके मनोमे यह बात ठूसी हुई है कि जीव सव समान है चाहे त्रत हो अथवा स्थावर और प्राण-हानि को तो हिंसा ही कहेंगे चाहे किसी व्यवहार को लेकर हुई हो ।
सोचिये, एक ने अपने खाने के लिए मास पकाया और दूसरे ने अपने लिए अन्न । दोनो अपनी-२ थाली पर भोजन करने बैठे और भोजन के पहले दोनो ने धर्मगुरु को श्रद्धा से याद किया कि कोई मुनिराज पधारे तो दानादिक का लाभ लें ।
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