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लाभान्वित रहेगे ? यदि नही तो उचित कार्य, जो शरीर को खड़ा रखने के लिए अथवा मन को शुद्ध करने के लिए, समाज को करने जरूरी है, उन कामो मे पाप कहना कितना अज्ञान है, पाठक वृन्द ही विचारे ।
शरीर से काम मुनिराज को भी लेना है और श्रावक को भी । मुनिराज अधिक ऊँचे पहुँच जाने के कारण, शरीर से बहुत सीमा तक सेवा ले चुक्ते हैं । श्रावक को उस ऊँचे पद तक पहुँचने के लिए शरीर की अधिक आवश्यकता रहती है । कार्य सिद्धि के पहले यदि वह शरीर की लापरवाही करता है तो वह भुल करता है । इसके ठीक नही रहने से वह लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ हो जायेगा । मुनिराज की देखादेखी उसका वह कदम असामयिक और घातक होगा । हमे अपनी शक्ति और पहुँच को समझना है । अपने हित को ध्यान में रखना है ।
पशु से मनुष्य भव क्यो अच्छा है ? विचारे पशु को जितनी भूख हुई, उतना खा लिया । सग्रह का नाम निशान नही, बिलकुल अपरिग्रही । झूठ बोलने का प्रश्न ही कहाँ, कुछ बोलते ही नही । चोरी भी नही करते। कुछ पशु तो हिंसा भी अपने लिए नही करते । जो कुछ उन्हें प्रकृति से मिल जाता है या मनुष्य अपने मे से दे देता है उसी पर सतोप कर लेते है । मकान भी नही बनाते । शीत, ताप का भी पूरा परिषह सहते हैं। तो क्या सच्चे महाव्रत धारी या अहिंसक इन्हें मानें ? या इन से भी बढ कर सर्वोपरि व्रतधारी एकेन्द्री जीवो को मानें ?
मनुष्य देह क्यो मूल्यवान है ? यदि वह मूल्यवान है तो उसे अपनी खुराक चाहिए या नही ? अपने कार्य क्षेत्र में वह ठीक से कार्य कर सके इसलिए उसको नीरोग रखना उचित है या नहीं ? सत्पथ पर चलाने के लिए और मन को साधने के लिए कुछ अवलम्वनो की आवश्यकता है या नही ? देह की रक्षा तो श्रावको को ही नही मुनिराजो को भी करनी पडती है और उसके लिए उनको भी किसी भी रूप में हो, छोटे से छोटे प्रश में ही सही ऐसी प्राण हानि तो अपनानी ही पडती है । अक्रियशीलता की उच्चता के सामने तो आहार, विहार का व्यवहार अपनाना भी नही टिकता । उपदेश सुनाने और सुनने का व्यवहार भी नही टिकता। इसलिए अवसर के पहले ही शुक्ल ध्यानी की समानता करना हमारे लिए उचित और लाभकारी नही कहा जा सकता ।
द्रव्यों का सहयोग मुनिराज भी लेते है और श्रावक भी । पाप समझना और छोड़ने की शक्ति रहते अपनाये जानां कपट- पूर्ण नीति का परिचायक है।
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